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404:प्रेमचंद रचनावली-5
 

हो जाना, उसके लिए मनोरंजक तमाशा बना हुआ था। कभी-कभी दो बुलबुले आमने-सामने आ जाते और जैसे हम कभी-कभी किसी के सामने आ जाने पर कतराकर निकल जाना चाहते हैं, पर जिस तरफ हम मुड़ते हैं, उसी तरफ वह भी मुड़ता है और एक सेकंड तक यही दांव- घात होता रहता है, यही तमाशा यहां भी हो रहा था। सुखदा को ऐसा आभास हुआ, मानो यह जानदार हैं. मानो नन्हें-नन्हें बालक गोल टोपियां लगाए जल-क्रीड़ा कर रहे हैं।

इसी वक्त नैना ने पुकारा-भाभी, आओ, नाव-नाव खेले। मैं नाव बना रही हूँ।

सुखदा ने बुलबुलों की ओर ताकते हुए जवाब दिया-तुम खेलो, मेरा जी नहीं चाहता।

नैना ने न मानी। दो नावे लिए आकर सुखदी को उठाने लगी-जिसकी नाच किनारे तक पहुंच जाय उसकी जीत पांच-पांच रुपये की बाजी।

सुखदा ने अनिच्छा से कहा- तुम मेरी तरफ से भी एक नाव छोड़ दो। जीत जाना, तो रुपये ले लेना, पर उसकी मिठाई नहीं आएगी. बताए देती हूँ।

"तो क्या दवाएं आएंगी?"

"वाह, उमसे अच्छी और क्या बात होगी? शहर में हजारों आदमी खांसी और ज्वर में पड़े हुए हैं। उनका कुछ उपकार हो जाएगा।"

महसा मुन्ने ने आकर दोनों नावे छीन लीं और उन्हें पानी में डालकर तालियां बजा- लगा।

नैना ने बालक का चुंबन लेकर कहा-वहां दो-एक बार न इसे याद करके गेती थी। न जाने क्यों बार-बार इसी की याद आती रहती थी।

"अच्छा, मेरी याद भी कभी आती थी?"

"कभी नहीं। हां, भैया की याद बार-बार आती थी ? और वह इतने निदर हैं कि छः महीने में एक पत्र भी न भेजा। मैंने भी दान लिया है कि जब तक उनका पत्र न आएगा, एक खत भी न लिखेंगी।"

"तो क्या सचमुच तुम्हें मेरी याद न आती थी? और मैं समझ रही थी कि तुम मेरे लिए विकल हो रही होगी। आख़िर अपने भाई की बहन ही तो हो। आंख की ओट होते ही गायब।"

"मुझे तो तुम्हारे ऊपर क्रोध आना था। इन छ: महीनों में केवल तीन बार गर्न र फिर भी मुन्नं को न ले गई।"

"यह ज्ञाता, तो आने का नाम न लेता।"

"तो क्या में इसकी दुश्मन थी?"

"इन लोगों पर मेरा विश्वास नहीं है, मैं क्या करू? मेरी तो यहीं समझ नहीं आता कि तुम वहां कैसे रहती थीं?

"तो क्या करती, भाग आती? तब भी तो जमाना मुझो को हंसी।"

"अच्छा सच बताना, पतिदेव तुमसे प्रेम करते हैं?"

"वह तो तुम्हें मालूम ही है।"

"में तो ऐम आदमी में एक बार भी न बोलती।"

"में भी कभी नहीं बोली।"

"सच ! बहुत बिगड़े हांगे? अच्छा, सारा वृतांत कहो। सोहागरात को क्या हुआ? देखो