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कर्मभूमि: 407
 

पोर हैं। मैं उन्हें दिखा दूंगी कि जिन गरीबों को तुम अब तक कुचलते आए हो, वही अब सांप बनकर तुम्हारे पैरों से लिपट जाएंगे। अब तक यह लोग उनसे रिआयत चाहते थे, अब अपना हक मांगेंगे। रिआयत न करने का उन्हें अख्तियार है, पर हमारे हक से हमें कौन वंचित रख सकता है? रिआयत के लिए कोई जान नहीं देता, पर हक के लिए जान देना सब जानते हैं। मैं भी देखूगी, लाला धनीराम और उनके पिठू कितने पानी में हैं?

यह कहती हुई सुखदा पानी बरसते में कमरे से निकल आई।

एक मिनट के बाद शान्तिकुमार ने नैना से पूछा-कहां चली गईं? बहुत जल्द गरम हो जाती हैं।

नैना ने इधर-उधर देखकर कहार से पूछा, तो मालूम हुआ, सुखदा बाहर चली गई। उसने आकर शान्ति कुमार से कहा ।

शान्तिकुमार ने विस्मित होकर कहा-इस पानी में कहां गई होंगी? मैं डरता हूं, कहीं हडताल वडताल न कराने लगें। तुम तो वहां जाकर मुझे भल गईं नैना. एक पत्र भी न लिखा।

एकाएक उन्हें ऐसा जान पड़ा कि उनके मुंह से एक अनुचित बात निकल गई है। उन्हें नैना से यह प्रश्न न पूछना चाहिए था। इसका वह जाने मन में क्या आपाय समझे। उन्हें यह मालूम हुआ, जैसे कोई उसका गला दबाए हुए है। वह वहां से भाग जाने के लिए रास्ता खोजने लगे। नई ब यहां एक क्षण भी नहीं बैठ सकते। उनके दिल में हलचल होने लगी, कहीं नैना अप्रसन्न होकर कुछ कह न बैठे । ऐसी मूर्खता उन्होंने कैसे कर डाली अन्न तो उनकी इज्जत ईश्वर के हाथ है।

नैना का मुख लाल हो गया। वह कुछ जवाब न देकर मुन्ने को पुकारती हुई कमरे से निकल गई। शान्तिकुमार मूर्तिवत बैठे रहे। अंत को वह उठकर सिर झुकाए इस तरह चले, मानो जूते पड़ गए हों। नैना का यह आरक्त मुख -मंडल एक दीपक की भांति उनके अन्त:पट को जैसे जलाए डालता था।

नैना ने सहदयता से कहा-कहां चले डॉक्टर साहब, पानी तो निकल जाने दीजिए।

शांतिकुमार कुछ बोलना चाहा, पर शब्दों की जगह कंठ में जैसे नाकाडला पड़ा हुआ था। वह जल्दी से बाहर चले गए. इस तरह लडखडाते हए, मानो अब गिरे तब गिरे। आंखों में आंसुओं का सागर उमड़ा हुआ था।

बारह

अब भी मूसलाधार वर्षा हो रही थी। संध्या से पहले संध्या हो गई थी। और सुखदा ठाकुरद्वारे में बैठी हुई ऐसी हड़ताल का प्रबंध कर रही थी, जो म्युनिसिपल बोर्ड और उसके कर्ण- धारों का सिर हमेशा के लिए नीचा कर दे, उन्हें हमेशा ५ लिए सबक मिल जाय कि जिन्हें व नीच समझते हैं, उन्हीं की दया और सेवा पर उनके जीवन का आधार है। सारे नगर में एक सनसनी-सी छाई हुई है, मानो किसी शत्रु ने नगर को घेर लिया हो। कहीं धोबियों का जमाव हो रहा है, कहीं चमारों का, कहीं मेहतरों का! नाई-कहारों की पंचायत अलग हो रही है।