पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मभूमि:409
 

कालकोठरी में बीमार न हों, तो क्या हो? सामने से गंदा नाला बहता है। सांस लेते नाक फटती है।

ईद कुंजडा अपनी झुकी हुई कमर को सीधी करने की चेष्टा करते हुए बोला–अगर मुकद्दर में आराम करना लिखा होता, तो हम भी किसी बड़े आदमी के घर न पैदा होते? हाफिज हलीम आज बड़े आदमी हो गए हैं, नहीं मेरे सामने जूते बेचते थे। लड़ाई में बन गए। अब रईसों के ठाठ हैं। सामने चला जाऊं तो पहचानेंगे नहीं। नहीं ना पैसे- धेले की मूली-तुरई उखाड़ गर ले जाते थे। अल्लाह बड़ा कारसाज है। अब तो लड़का भी हाकिम हो गया है। क्या पूछना है?

जंगली धोसी पूरा काला देव था। शहर का मशहूर पहलवान। बोला—मैं तो पहले ही जानता था, कुछ होना--हवाना नहीं हैं। अमीरों के सामने हमें कौन पूछता है?

अमर वेग पतली, लंबी गरदन निकालकर बोलाबई के फैसले की अपील तो कहीं होतो हो? हाईकोर्ट में अपील करनी चाहिए। हाईकोर्ट न सुने, तो बादशाह से फरियाद की जाय।

सुखदा ने मुस्कराकर कहा–'बार्ड के फैसले की अपील वही है जो इस वक्त तुम्हारे सामने हो रही है। आप ही लोग हाईकोर्ट हैं, आप ही लोग जज हैं। बोर्ड अमीरों का मुंह देखता है। गरीबों के मुहल्ले खोद - खोदकर फेंक दिए जाते हैं, इसलिए कि अमीरों के महल बने। गरीबों को दस-पांच रुपये मुआवजा देकर उसी जमीन के हजारों वसूल किए जाते हैं। उन रुपयों से अफसरों को बड़ी-बड़ी तनख्वाह दी जाती हैं। जिस जमीन पर हमारा दावा था, वह लाला धनीराम को दे दी गई। वहां उनके बंगले बनेंगे। बोर्ड को रुपये से प्यार है, तुम्हारी जान की उनकी निगाह में कोई कीमत नहीं। इन स्वार्थियों से इंसाफ की अशा छोड़ दो। तुम्हारे पास इतनी शक्ति है, उसका उन्हें ख़याल नहीं है। वे समझते हैं, यह गरीब लोग हमारा कर ही क्यो सकते हैं? मैं कहती हू, तुम्हार ही हाथों में सब कुछ है। हमें लड़ाई नहीं करनी है, फसद नहीं करना है। सिर्फ हड़ताल करना है, यह दिखाने के लिए कि तुमने बोर्ड के फैसले को मजूर नहीं किया और यह हड़ताल एक-दो दिन की होगी। यह ऊस वक्त तक रहेगी जब तक बोर्ड अपना फैसला रद्द करके हमें जमोन न दे दे। मैं जानती हूं, ऐसः हड़ताल करना आसान नहीं है। आप लोगों में बहुत ऐसे हैं, जिनके घर में एक दिन का भी भोजन नहीं है, मगर वह भी जानती है कि बिनी तकलीफ उठाए आराम नहीं मिलता।।

सुमेर की जूते की दुकान थी। तीन-चार चमार नौकर थे। खुद जूते काट दिया करता था। मजूर से पूंजीपति बन गया था। घास वालों और साईसों को सूट पर रुपये भी उधार दिया करता था। मोटी ऐनकों के पीछे से बिज्जू की भाँति ताकता हुआ बोला-हड़ताल होना तो हमारी बिरादरी में मुश्किल है, बहुजी । यों आपका गुलाम हूं और जानता हूं कि आप जो कुछ करेंगी, हमारी ही भलाई के लिए करेंगी, पर हमारी बिरादरी में हड़ताल होना मुश्किल है। बेचारे दिन-भर घास काटते हैं, सांझ को बेचकर अ -दाल जुटाते हैं, तब कहीं चूल्हा जलता है। कोई सहीस है, कोई कोचवान, बेचारों की नौकरी जाती रहेगी। अब तो सभी जाति वाले सहीसी, कोचवानी करते हैं। उनकी नौकरी दूसरे उठा लें, तो बेचारे कहां जाएंगे?

सुखदा विरोध सहन न कर सकती थी। इन कठिनाइयों का उसकी निगाह में कोई मूल्य