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412:प्रेमचंद रचनावली-5
 

तेरह

सुखदा घर पहुंची, तो बहुत उदास थी। सार्वजनिक जीवन में हार का उसे यह पहला अनुभव था और उसका मन किसी चाबुक खाए हुए अल्हड़ बछेड़े की तरह सारा साज और बम और बंधन तोड़-ताड़कर भाग जाने के लिए व्यग्र हो रहा था। ऐसे कायरों से क्या आशा की जा सकती है। जो लोग स्थायी लाभ के लिए थोड़े-से कष्ट नहीं उठा सकते, उनके लिए संसार में अपमान और दु:ख के सिवा और क्या है?

नैना मन में इस हार पर खुश थी। अपने घर में उसकी कुछ पूछ न थी, उसे अब तक अपमान-ही-अपमान मिला था, फिर भी उसका भविष्य उसी घर से संबद्ध हो गया था। अपनी आंखें दुखती हैं, तो फोड़ नहीं दी जातीं। सेठ धनीराम ने जमीन हजारों में खरीदी थी, थोड़े ही दिनों में उनके लाखों में बिकने की आशा थी। वह सुखदा से कुछ कह तो न सकती थी, पर यह आंदोलन उसे बुरा मालूम होता था। सुखदा के प्रति अब उसको वह भक्ति न रही थी। अपनी द्वेष-तृष्णा शांत करने ही के लिए तो वह आग लगा रही है। इन तुच्छ भावनाओं से दबकर सुखदी उसकी आंखों में कुछ संकुचित हो गई थी।

नैना ने आलोचक बनकर कहा-अगर यहां के आदमियों को संगठित कर लेना इतना आसान होता, तो आज यह दुर्दशा ही क्यों होती?

सुखदा आवेश में बोली-हड़ताल तो होगी, चाहे चौधरी लोग माने या न मानें। चौधरी मोटे हो गए हैं और मोटे आदमी स्वार्थी हो जाते हैं।

नैना ने आपत्ति की-डरना मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। जिसमें पुरुषार्थ है, ज्ञान है, बल है, वह बाधाओं को तुच्छ समझ सकता है। जिसके पास व्यंजनों से भरा हुआ थाल है, वह एक टुकड़ा कुत्ते के सामने फेंक सकता है, जिसके पास एक ही टुकड़ा हो, वह उमी से चिमटेगा।

सुखदा ने मानो इस कथन को सुना ही नहीं-मंदिर वात्ने झगड़े में न जाने सभी में कैसे साहस आ गया था। मैं एक बार वही कांड दिखा देना चाहती हूँ।

नैना ने कांपकर कहा-नहीं भाभी, इतना बड़ा भार सिर पर मत लो। समय आ जाने पर सब-कुछ आप ही हो जाता है। देखो, हम लोगों के देखते-देखते बाल-विवाह, छूत- छात का रिवाज कम हो गया। शिक्षा का प्रचार कितना बढ़ गया। समय आ जाने पर गरीबी के घर भी बन जाएंगे।

"यह तो कायरों की नीति है। पुरुषार्थ वह है, जो समय को अपने अनुकून्न बनाए।"

"इसके लिए प्रचार करना चाहिए।"

"छ: महीने वाली राह है।"

"लेकिन जोखिम तो नहीं है।"

“जनता को मुझ पर विश्वास नहीं है।"

एक क्षण बाद उसने फिर कहा--अभी मैंने ऐसी कौन-सी सेवा की है कि लोगों को मुझ पर विश्वास हो; दो-चार घंटे गलियों में चक्कर लगा लेना कोई सेवा नहीं है।

"मैं तो समझती हैं, इस समय हड़ताल करने से जनता की थोड़ी बहुत सहानुभूति