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416:प्रेमचंद रचनावाली-5
 

मेहमान हूं। मुझे मर जाने दो फिर जो कुछ जी में आए करना।

सुखद कमरे के द्वार पर आकर दृढ़ता से बोली- मैं जमानत न दूंगी, न इस मुआमले की पैरवी करूंगी। मैंने कोई अपराध नहीं किया है।

समरकान्त ने जीवन भर में कभी हार न मानी थी, पर आज वह इस अभिमानिनी रमणी के सामने परास्त खड़े थे। उसके शब्दों ने जैसे उनके मुंह पर जाली लगा दी। उन्होंने सोचा–स्त्रियों को संसार अबला कहता है। कितनी बड़ी मूर्खता है। मनुष्य जिस वस्तु को प्राणों से भी प्रिय समझता है, वह स्त्री की मुट्ठी में है।

उन्होंने विनय के साथ कहा-लेकिन अभी तुमने भोजन भी तो नहीं किया। खड़ी मुंह क्या ताकती है नैना, क्या भंग खो गई है। जा, बह को खाना खिला दे। अरे ओ महराज । महरा। यह ससुरा न जाने कहां मर रहा? समय पर एक भी आदमी नजर नहीं आता। तू बहू को ले जा रसोई में नैना, मैं कुछ मिठाई लेता आऊ साथ-साथ कुछ खाने को तो ले जाना ही पड़ेगा।

कहार ऊपर बिछावन लगा रहा था। दौड़ा हुआ आकर खड़ा हो गया। समरकान्त ने उसे जोर से एक धौल मारकर कहा-कहां था तू? इतनी देर से पुकार रहा हूँ, सुनता नहीं । किमके लिए बिछावन लगा रहा है, ससुर | बहू जा रही है। जा दौड़कर बाजार से मिठाई ला चौक वाली दुकान से लाना।।

सुखदा आग्रह के साथ बोली-मिठाई को मुझे बिल्कुल जरूरत नहीं है और न कुछ खाने को ही इच्छा है। कुछ कपड़े लिए जाती हूं, वही मेरे लिए काफी हैं।

बाहर से आवाज आई-सेठजी, देवीजी को जल्दी भेजिए, देर हो रही है।

समरकान्त बाहर आए और अपराधों की भांति खड़े गए।

डिप्टी दुहरे बदन का, रोबदार, पर हंसमुख आदमी था, जो और किसी विभाग में अच्छी जगह न पाने के कारणं पुलिस में चला आया था। अनावश्यक अशिष्टता से उसे घृणा थी और यथासाध्य रिश्वत न लेता था। पूछा-कहिए क्या राय हुई?

समरकान्त ने हाथ बांधकर कहा-कुछ नहीं सुनती हुजूर, समझाकर हार गया। और मैं उसे क्या समझाऊं? मुझे वह समझती ही क्या है? अब तो आप लोगों की दया का भरोसा है। मुझसे जो खिदमत कहिए, उसके लिए हाजिर हूं। जेलर साहब से तो आपका रब्त-जब्त होगा ही, उन्हें भी समझा दोजिएगा। कोई तकलीफ न होने पावे। मैं किसी तरह भी बाहर नहीं हैं। नाजुक मिजाज औरत है, हुजूर ।

डिप्टी ने सेठजी को बराबर की कुर्सी पर बैठाकर कहा-सेठजी, यह बातें उन मुअमला में चलती हैं, जहां कोई काम बुरी नीयत से किया जाता हैं। देवीजी अपने लिए कुछ नहीं कर रही हैं। उनका इरादा नेक है; वह हमारे गरीब भाइयों के हक के लिए लड़ रही हैं। उन्हें किसी तरह की तकलीफ न होगी। नौकरी से मजबूर हूं: वरना यह देवियां तो इस लायक हैं कि इनके कदमों पर सिर रखें। खुदा ने सारी दुनिया की नेमतें दे रखी हैं, मगर उन सब पर लात मार दी और हक के लिए सब कुछ झेलने को तैयार हैं। इसके लिए गुर्दा चाहिए साहब, मामूली बात नहीं है।

सेठजी ने संदूक से दस अशर्फियां निकाली और चुपके से डिप्टी की जेब में डालते