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कर्मभूमि:419
 

पर यह न उतरा। नैना से बहुत हिला था, पर आज वह अबोध आंखों से देख रहा था-माता कहीं जा रही है। उसकी गोद से कैसे उतरे? उसे छोड़कर वह चली जाए, तो बेचारा क्या कर लेगा?

नैना ने उमका चुंबन लेकर कहा--बालक बड़े निर्दयी होते हैं।

सुखदा ने मुस्कराकर कहा-लड़का किसका है।

द्वार पर पहुंचकर फिर दोनों गले मिलीं। समरकान्त भी ड्योढ़ी पर खड़े थे। सुखदा ने उसके चरणों पर सिर झुकाया। उन्होंने कांपते हुए हाथों से उसे उठाकर आशीर्वाद दिया। फिर मुन्ने को कलेजे से लगाकर फूट-फूटकर रोने लगे। यह सारे घर को रोने का सिगनल था। आंसू तो पहले ही से निकल रहे थे। वह मूक रुदन अब जैसे बंधनों से मुक्त हो गया। शीतल, धीर, गंभीर बुढ़ापा जब विह्वल हो जाता है, तो मानो पिंजरे के द्वार खुल जाते हैं और पक्षियों को रोकना असंभव हो जाती है। जब सत्तर वर्ष तक संसार के समर में जमा रहने वाला नायक हथियार डाल दे, तो रंगरूटों को कौन रोक सकता है?

सुखदा मोटर में बैठी। जय-जयकार की ध्वनि हुई। फूलों को वर्षा की गई। मोटर चल दी।

हजारो आदमी मोटर के पीछे दौड़ रहे थे और सुखदा हाथ उठाकर उन्हें प्रणाम करती जाती थी। यह श्रद्धा, यह प्रेम, यह सम्मान क्या धन में मिल सकता है? या विद्या से? इसका केवल एक ही साधन है, और वह सेवा है, और सुखद को अभी इस क्षेत्र में आए हुए ही कितने दिन हुए थे?

सड़क के दोनों ओर नर-नारियों को दोवार खड़ी थी और मोटर मानो उनके हृदय को कुचलती-मसलती चली जा रही थी।

सुखदा के हृदय में गर्व न था, उल्लास न था, द्वेष न था, केवल वेदना थी। जनता की इस दयनीय दशा पर, इस अधोगति पर, जो डूबती हुई दशा में तिनके का सहारा पाकर भी कृतार्थ हो जाती हैं।

कुछ देर के बाद सड़क पर सन्नाटा था, सावन की निद्रा-सी काली रात संसार को अपने अंचल में सुला रही थी और मोटरे अनंत में स्वप्न की भांति उडी चली जाती थी। केवल देह में ठंडी हवा लगने से गति का ज्ञान होता था। इस अंधकार में सुखदी के अंतस्तल में एक प्रकाश-सा उदय हुआ था। कुछ वैसा ही प्रकाश, जो हमारे जीवन की अंतिम घड़ियों में उदय होता है, जिसमें मन की सारी कालिमाएं, सारी ग्रंथियां, सारो विषमताएं अपने यथार्थ रूप में नजर आने लगती हैं। तब हमें मालूम होता है कि जिसे हमने अंधकार में काला देव समझा था, वह केवल तृण का देर थी। जिसे काला नाग समझा था, वह रस्सी का एक टुकड़ा था। आज उसे अपनी पराजय का ज्ञान हुआ, अन्याय के सामने नहीं असत्य के सामने नहीं, बल्कि त्याग के सामने और सेवा के सामने। इसी सेवा और त्याग के पीछे तो उसका पति से मतभेद हुआ था, जो अंत में इस वियोग का कारण हुआ। उन सिद्धांतों से अभक्ति रखते हुए भी वह उनकी ओर खिंचती चली आती थी और आज वह अपने पति को अनुगामिनी थी। उसे अमर के उस पत्र की याद आई, जो उसने शान्तिकुमार के पास भेजा था और पहली बार पति के प्रति क्षमा का भाव उसके मन में प्रस्फुटित हुआ। इसे क्षमा में दया नहीं, सहानुभूति थी,