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कर्मभूमि:421
 
चौथा खंड

एक

अमरकान्त को ज्योंही मालूम हुआ कि सलीम यहां का अफमर होकर आया है, वह उससे मिलने चला। समझा, खूब गपशप होगी। यह खयान्न तो अया, कहीं उसमें अफसरी की बु न आ गई हो, लेकिन पुराने दोस्त से मिलने की उत्कंठा को न रोक सका। बीस-पच्चीस मील का पहाड़ी रास्ता था। ठंड खूब पड़ने लगी थी। आकाश कुहरे की धुंध से मटियाला हो रहा था और उस धुंध में सूर्य जैसे टटोल-टटोलकर रास्ता ढूंढता हुआ चला जाता था। कभी सामने आ जाता, कभी छिप जाता। अमर दोपहर के बाद चला था। उसे आशा थी कि दिन रहते पहुच जाऊगा, कितु दिन ढलता जाता था और मालूम नहीं अभी और कितना रास्ता बाकी है। उसके पास केवल एक देशी कंबल था। कहीं रात हो गई, तो किसी वृक्ष के नीचे टिकना पड़ जाएगा। देखते-ही-देखते मूर्यदेव अम्त भी हो गए। अंधेरा जैसे मुंह खोले संसार को निगलने चला आ रहा था। अमर ने कदम और तेज़ किए। शहर में दाखिल हुआ, तो आठ बजे गए थे।

सलीम उसी वक्त क्लब से लौटा था। खबर पाते ही बाहर निकल आया, मगर उसकी सज-धज देख़ी, तो झिझका और गले मिलन के बदले हाथ बढ़ा दिया। अदली सामने ही खड़ा था। उसके सामने इस देहाती से किसी प्रकार को घनिष्ठती का परिचय देना बड़े साहस का काम था। उसे अपने सजे हुए कमरे में भी न ले जा सका। अहाते में छोटा-सा बाग था। एक वृक्ष के नीचे उसे ले जाकर उसने कहा-यह तुमने क्या धज बना रखी है जी, इतने झूश कब से हो गए? वाह रे आपका कुता । मालूम होता है इकि का थैला है, और यह डाबलशू जूता किस दिसावर से मंगवाया है। मुझे डर हैं, कहीं बार में न धर लिए आओ।

। अमर वहीं जमीन पर बैठ गया और बोला--कुछ खातिर-तवाजो तो की नहीं, उल्टे और फटकार सुनाने लगे। देहातियों में रहता हूँ, जेंटलमैन बनें तो कैसे निबाह हो? तुम खूब आए भाई, कभी-कभी गप-शप हुआ करेगी। उधर की खैर-आफियत कहो। यह तुमने नौकरी क्या कर ली? डटकर कोई रोजगार करते, सूझी भी तो गुलामी।।

सलीम ने गर्व से कहा-गुलामी नहीं है जनाब, हुकूमत है। दस-पांच दिन में मोटर आई जाती है, फिर देखना किस शान से निकलता है, मगर तुम्हारी यह हालत देखकरे दिल टूटे गया। तुम्हें यह भेष छोड़ना पड़ेगा।

अमरकान्त के आत्म-सम्मान को चोट लगी। बोला–मेरा खयाल था, और है कि कपड़े महज जिस्म की हिफाजत के लिए हैं, शान दिखाने के लिए नहीं।

सलीम ने सोचा, कितनी लचर-सी बात है। देहातियों के साथ रहकर अक्ल भी खो बैठा। बोला-खाना भी महज जिस्म की परवरिश के लिए खाया जाता है, तो सूखे चने क्यों नहीं चबाते? सूखे गेहूं क्यों नहीं फांकते? क्यों हलवा और मिठाई उड़ाते हो?

"मैं सूखे चने ही चबाता हूं।"