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422:प्रेमचंद रचनावली-5
 

"झूठे हो। सूखे चनों पर ही यह सीना निकल आया है । मुझसे ड्योढे हो गए, मैं तो शायद पहचान भी न सकता।"

"जी हां, यह सूखे चनों ही की बरकत है। ताकत साफ हवा और संयम में है। हलवा- पूरी से ताकत नहीं होती, सीना नहीं निकलता। पेट निकल आता है। पच्चीस मील पैदल चला आ रहा हूं। है दम? जरा पांच ही मील चलो मेरे साथ।

"मुआफ कीजिए, किसी ने कहा-बड़ी रानी, तो आओ पीसो मेरे साथ। तुम्हें पीसना मुबारक हो। तुम यहां कर क्या रहे हो?"

"अब तो आए हो, खुद ही देख लोगे। मैंने जिंदगी का जो नक्शा दिल में खींचा था, उसी पर अमल कर रहा हूं। स्वामी आत्मानन्द के आ जाने से काम में और भी सहूलियत हो गई है।"

ठंड ज्यादा थी। सलीम को मजबूर होकर अमरकान्त को अपने कमरे में लाना पड़ा। अमर ने देखा, कमरे में गद्देदार कोच हैं, पीतल के गमले हैं, जमीन पर कालीन है, मध्य में संगमरमर की गोल मेज है।

अमर ने दरवाजे पर जूते उतार दिए और बोला-किवाड़ बंद कर दें, नहीं कोई देख ले, तो तुम्हें शर्मिंदा होना पड़े। तुम साहेब ठहरे।

सलीम पते की बात सुनकर झेंप गया। बोला-कुछ-न-कुछ ख़याल तो होता ही है भई, हालांकि मैं फैशन का गुलाम नहीं हूं। मैं भी सादी जिंदगी बसर करना चाहता था, लेकिन अब्बाजान की फरमाइश कैसे टालता? प्रिसिपल तक कहते थे, तुम पास नहीं हो सकत, लेकिन रिजल्ट निकला तो सब दंग रह गए। तुम्हारे ही खयाल से मैंने यह जिला सद् किया। कल तुम्हें कलक्टर से मिलाऊंगा। अभी मि० गजनवी से तो तुम्हारी मुलाकात न होगी। बड़ा शौकीन आदमी है, मगर दिल का साफा पहली ही मुलाकात में उससे मेरी बेतकल्लुफी हो गई। चालीम के करीब होंगे, मगर कपेबाजी नहीं छोड़ी।

अमर के विचार में अफसरों को सच्चरित्र होना चाहिए था। सलीम सच्चरित्रता का कायल न था। दोनों मित्रों में बहस हो गई।

अमर बोली-सच्चरित्र होने के लिए खुश्क होना जरूरी नहीं।

मैंने तो मुल्लाओं को हमेशा खुश्क ही देखा। अफसरों के लिए महज कानून की पाबी काफी नहीं। मेरे खयाल में तो थोड़ी-सी कमजोरी इसान का जेवर है। मैं जिंदगी में तुमसे ज्यादा कामयाब रहा। मुझे दावा है कि मुझसे कोई नाराज नहीं है। तुम अपनी बीबी तक को खुश न रख सके। मैं इस मुल्लापन को दूर से सलाम करता हूँ। तुम किसी जिले के अफसर बना दिए जाओ, तो एक दिन न रह सको। किसी को खुश न रख सकोगे।

अमर ने बहस को तूल देना उचित न समझा, क्योंकि बहस में वह बहुत गर्म हो जाया करता था।

भोजन का समय आ गया था। सलीम ने एक शाल निकालकर अमर को ओढा दिया। एक रेशमी स्लीपर उसे पहनने को दिया। फिर दोनों ने भोजन किया। एक मुद्दत के बाद अमर को ऐसा स्वादिष्ट भोजन मिला। मांस तो उसने न खाया, लेकिन और सब चीजें मजे से खाईं।

सलीम ने पूछा-जो चीज खाने की थी, वह तो तुमने निकालकर रख दी।