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430:प्रेमचंद रचनावाली-5
 

गूदड़ बोले-बहुत ठीक कहते हो, भैया।

"घर में आग लगने पर हमारा क्या धर्म है? क्या हम आग को फैलने दें और घर की बची-बचाई चीजें भी लाकर उसमें डाल दें?"

गूदड़ ने कहा-कभी नहीं। कभी नहीं।

"क्यों? इसलिए कि हम घर को जलाना नहीं, बनाना चाहते हैं। हमें उस घर में रहना है। उसी में जीना है। यह विपत्ति कुछ हमारे ही ऊपर नहीं पड़ी है। सारे देश में यही हाहाकार मचा हुआ है। हमारे नेता इस प्रश्न को हल करने की चेष्टा कर रहे हैं। उन्हीं के साथ हमें भी चलना है।"

उसने एक लंबा भाषण किया; पर वहीं जनता जो उसका भाषण सुनकर मस्त हो जाती थी, आज उदासीन बैठी थी। उसका सम्मान सभी करते थे, इसलिए कोई ऊधम न हुआ, कोई बमचख न मचा; पर जनता पर कोई असर न हुआ। आत्मानन्द इस समय जनता का नायक बना हुआ था।

सभा बिना कुछ निश्चय किए उठ गई, लेकिन बहुमत किस तरफ है, यह किसी से छिपा न था।

चार

अमर घर लौटा, तो बहुत हताश था। अगर जनता को शांत करने का उपाय न किया गया. अवश्य उपद्रव हो जाएगा। उसने महतजी से मिलने का निश्चय किया। इस समय उसका चित्त इतना उदास था कि एक बार जी में आया, यहां से सब छोड़-छाड़कर चला जाए। उसे अभी तक अनुभव न हुआ था कि जनता सदैव तेज मिजाजों के पीछे चलती है। वह न्याय और धर्म, हानि-लाभ, अहिंसा और त्याग सब कुछ समझाकर भी आत्मानन्द के फूके हुए जादू को उतार न सका। आत्मानन्द इस वक्त यहां मिल जाते, तो दोनों मित्रों में जरूर लड़ाई हो जाती; लेकिन वह आज गायब थे। उन्हें आज घोड़े का आसन मिल गया था। किमी गांव में संगठन करने चले गए थे।

आज अमर का कितना अपमान हुआ। किसी ने उसकी बातों पर कान तक न दिया। उनके चेहरे कह रहे थे, तुम क्या बकते हो, तुमसे हमारा उद्धार न होगा। इसे घाव पर कोमल झाब्दों के मरहम की जरूरत थी-कोई उन्हें लिटाकर उनके घाव को फाहे से धोए; उस पर शीतल लेप करे।

मुन्नी रस्सी और कलसा लिए हुए निकली और बिना उसकी ओर ताके कुएं की ओर चली गई। उसने पुकारा-सुनती जाओ, मुन्नी ! पर मुन्नी ने सुनकर भी न सुना। जरा देर बाद वह कलसा लिए हुए लौटी और फिर उसके सामने से सिर झुकाए चली गई। अमर ने फिर पुकार--मुन्नी, सुनो एक बात कहनी है। पर अबकी भी वह न रुकी। उसके मन में अब संदेह न था।

एक क्षण में मुन्नी फिर निकली और सलोनी के घर जा पहुंची। वह मदरसे के पीछे एक छोटी-सी मंडैया डालकर रहती थी। चटाई पर लेटी एक भजन गा रही थी। मुन्नी ने जाकर पूछा–आज कुछ पकाया नहीं काकी, यों ही सो रही हो?