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434:प्रेमचंद रचनावली-5
 

गूदड़ ने पूछा-बड़ी देर लगाई। कुछ बातचीत हुई?

अमर ने हंसकर कहा-अभी तो केवल दर्शन हुए हैं, आरती के बाद भेंट होगी। यह कहकर उसने जो देखा था, वह विस्तारपूर्वक बयान किया।

गूदड़ ने गर्दन हिलाते हुए कहा- भगवान् का दरबार है। जो संसार को पालता है, उसे किस बात की कमी? सुना तो हमने भी है, लेकिन कभी भीतर नहीं गए कि कोई कुछ पूछने- पोछने लगें, तो निकाले जायं। हां, घुड़साल और गऊशाला देखी है, मन चाहे तो तुम भी देख लो।

अभी समय बहुत बाकी थाअमर गऊशाला देखने चला। मंदिर के दक्खिन में पशुशालाएं थीं। सबसे पहले पीलख़ाने में घुसे। कोई पच्चीस-तीस हाथी आंगन में जंजीरों से बंधे खड़े थे। कोई इतना बड़ा कि पूरा पहाड़, कोई इतना मोटा, जैसे भैंस। कोई झूम रहा था, कोई सूड घुमा रहा था, कोई बरगद के डाल-पात चबा रहा था। उनके हौदे, झूले, अंबारियां, गहने सब अलग गोदाम में रखे हुए थे। हरेक हाथी का अपना नाम, अपना सेवक, अपना मकान अलग था। किसी को मन-भर रातिब मिलता था, किसी को चार पसेरी। ठाकुरजी की सवारी में जो हाथी था, वही सबसे बड़ा था। भगत लोग उसकी पूजा करने आते थे। इस वक्त भी मालाओं का ढेर उसके सिर पर पड़ा हुआ था। बहुत से फूल उसके पैरों के नीचे थे। ।

यहां से घुड़साल में पहुंचे। घोड़ों की कतारें बंधी हुई थीं, मानो सवारों की फौज का पड़ाव हो। पांच सौ घोडों से कम न थे, हरेक जाति के, हरेक देश के। कोई सवारी का कोई शिकार का, कोई बग्घी का, कोई पोलो का। हरेक घोड़े पर दो-दो आदमी नौकर थे। उन्हें रोज बादाम और मलाई दी जाती थी।

गऊशाला में भी चार-पांच सौ गाएं- भैंसें थीं । बड़े-बड़े मटके ताजे दूध से भरे रखे थे। ठाकुरजी आरती के पहले स्नान करेंगे। पांच-पांच मन दूध उनके स्तर को तीन बार रोज चाहिए, भंडार के लिए अलग।

अभी यह लोग इधर-उधर घूम ही रहे थे कि आरती शुरू हो गई। चारों तरफ से लोग आरती करने को दौड़ पड़े।

गूदड़ ने कहा-तुमसे कोई पूछता--कौन भाई हो, तो क्या बताते?

अमर ने मुस्कराकर कहा-वैश्य बताता।

"तुम्हारी तो चल जाती; क्योंकि यहां तुम्हें लोग कम जानते हैं, मुझे तो लोग रोज ही हाथ में चरसे बेचते देखते हैं, पहचान लें, तो जीता न छोड़ें। अब देखो भगवान् की आरती हो रही हैं और हम भोतर नहीं जा सकते, यहां के पंडे-पुजारियों के चरित्र सुनो, तो दांतों तले उंगली दबा ली। पर वे यहां के मालिक हैं, और हम भीतर कदम नहीं रख सकते। तुम चाहे जाकर आरती ले लो। तुम सूरत से भी तो ब्राह्मण जंचते हो। मेरी तो सूरत ही चमार-- चमार पुकार रही है ।"

अमर की इच्छा तो हुई कि अंदर जाकर तमाशा देखे, पर गूदड़ को छोड़कर न जा सका। कोई आध घंटे में आरती समाप्त हुई और उपासक लौटकर अपने-अपने घर गए, तो अमर महन्तजी से मिलने चला। मालूम हुआ, कोई रानी साहब दर्शन कर रही हैं। वहीं आंगन में टहलता रहा।

आध घंटे के बाद उसने फिर साधु-द्वारपाल से कहा, तो पता चला, इस वक्त नहीं दर्शन