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कर्मभूमि:441
 


पड़ी और गजनवी ने सख्त ताकीद की तो फिर चला। उस वक्‌त सावन की झड़ी लग गई थी, नदी, नाले-भर गए थे, और कुछ ठंडक आ गई थी। पहाड़ियों पर हरियाली छा गई थी। मोर बोलने लगे थे। प्राकृतिक शोभा ने देहाती को चमका दिया था।

कई दिन के बाद आज बादल खुले थे। महन्तजी ने सरकारी फैसले के आने तक रुपये में चार आने की छूट की घोषणा दी थी और कारिंदे बकाया वसूल करने की फिर चेष्टा करने लगे थे। दो-चार असामियों के साथ उन्होंने सख्ती भी की थी। इस नई समस्या पर विचार करने के लिए आज गंगा-तट पर एक विराट् सभा हो रही थी। भोला चौधरी सभापति बनाए ग‌ए और स्वामी आत्मानन्द का भाषण हो रहा था — स‌ज्जनों तुम लोगों में ऐसे बहुत कम हैं, जिन्होंने आधा लगान न दे दिया हो। अभी तक तो आधे की चिंता थी। अब केवल आधे-के-आधे की चिंता है। तुम लोग खुशी से दो-दो आने और दे दो, सरकार महन्तजी की मलागुजारी में कुछ-न-कुछ छूट अवश्य करेगी। अब की छ: आने छुट पर संतुष्ट हो जाना चाहिए। आगे की फसल में अगर अनाज का भाव यही रहा, तो हमें आशा है कि आट आने की छूट मिल आएगी। यह मेरा प्रस्ताव हैं, आप लोग इस पर विचार करें। मेरे मित्र अमरकान्त की भी यही राय हैं। अगर आप लोग कोई प्रस्ताव करना चाहते हैं तो हम उस पर विचार करने को भी तैयार हैं।

उसी वक्त डाकिये ने सभा में आकर अमरकान्त के हाथ में एक लिफाफा रख दिया। पेन की लिखावट में बता दिया कि नैना का पत्र हैं। पढ़ते ही जैसे उस पर नशा छा गया। मुख पर ऐसा तेज आ गया, जैसे अग्नि में आहुति पड़ गई हो। 'गर्व भरी आंखों से इधर-उधर देखा। मन के पात्र जैसे छलांगे मारने लगे। सुखदा की गिरफ्तारी और जेल यात्रा का वृत्तांत था। आह! वह जेल गई और वह यहां पड़ा हुआ है। उसे बाहर रहने का क्या अधिकार है। वह कोमलांगी जेल में हैं, जो कड़ी सृष्टि भी न सह सकता था जिसे रेशमी वस्त्र भी चुभते थे, मखमली गद्दे भी गड़ते थे, वह आज जेल की यातना सह रही है। वह आदर्श नारी, वह देश की लाज रखने वाली, वह कुल लक्ष्मी, आज जेल में है। अमर के हृदय का सारा रक्त सुखदा के चरणों पर गिरकर बह जाने के लिए मचल उठा। सुखदा! सुखदा! चारों ओर वही मूर्ति थी। संध्या की लालिमा से रजत गंगा की लहरों पर बैठी हुई कौन चली जा रही है? सुखदा! ऊपर असीम आकाश में केसरिया साड़ी पहने कौन उठी जा रही है? सुखदा! सामने व प्रयाग पर्वतमाला में गोधूलि का हार गले में डाले कौन खड़ी हैं? सुखदा! अमर विक्षिप्तों की भांति कई कदम आगे दौड़ा, मानो उसकी पद-रज मस्तक पर लगा लेना चाहता हो।

सभा में कौन क्या बोला, इसकी उसे खबर नहीं। वह खुद क्या बोला, इसकी भी उसे खबर नहीं। जब लोग अपने-अपने गांवों को लौटे तो चन्द्रमा की प्रकाश फैल गया था। अमरकान्त का अंत:करण कृतज्ञता से परिपूर्ण था। जैसे अपने ऊपर किसी की रक्षा का साया उसी ज्योत्स्ना की भांति फैला हुआ जान पड़ा। उसे प्रतीत हुआ, जैसे उसके जीवन में कोई विधान है, कोई आदेश है, कोई आशीर्वाद है, कोई सत्य है, गैर वह पग-पग पर उस सभालता है, बचाता है। एक महान इच्छा, एक महान् चेतना के संसर्ग का आज उसे पहली बार अनुभव हुआ।

सहसा मुन्नी ने पुकारा—लाला, आज तो तुमने आग ही लगा दी।

अमर ने चौंककर कहा—मैंने!