पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४४८

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448 : प्रेमचंद रचनावली-5 पर क्यों इतनी बेदर्दी से रुपये उड़ाए जाते हैं? किसान गूंगे हैं, बेबस हैं, कमजोर हैं। क्या इसलिए सारा नजला उन्हीं पर गिरना चाहिए?" सलीम ने अधिकार-गर्व से कहा-तो नतीजा क्या होगा, जानते हो? गांव-के-गांव बर्बाद हो जाएंगे, फौजी कानून जारी हो जाएगा, शायद पुलिस बैठा दी जाएगी, फसलें नीलाम कर दी जाएगी, जमीनें जब्त हो जाएगी। कयामत का सामना होगा? अमरकान्त ने अविचलित भाव से कहा- जो कुछ भी हो, मर-मिटना जुल्म के सामने सिर झुकाने से अच्छा है। मदरसे के सामने हुजूम बढ़ता जाता था-सलीम ने विवाद का अंत करने के लिए कहा-चलो इस मुआमले पर रास्ते में बहस करेंगे। देर हो रही है। अमर ने चटपट कुरता गले में डाला और आत्मानन्द से दो-चार जरूरी बातें करके आ गया। दोनों आदमी आकर मोटर पर बैठे। मोटर चली, तो सलीम की आंखों में आंसू डबडबाए हुए थे। अमर ने सशंक होकर पूछा-मेरे साथ दगा तो नहीं कर रहे हो? सलीम अमर के गले लिपटकर बोला-इसके सिवा और दूसरा रास्ता न था। मैं नही चाहता था कि तुम्हें पुलिस के हाथों जलील किया जाय। "तो जरा ठहरो, मैं अपनी कुछ जरूरी चीज तो ले लें।" "हां-हां, ले लो, लेकिन राज खुल गया, तो यहाँ मेरी लाश नजर आएगी।" "तो चलो कोई मुजायका नहीं।" गांव के बाहर निकले ही थे कि मुन्नी आती हुई दिखाई दी। अमर ने मोटर रुकवाकर पूछा-तुम कहां गई थीं, मुन्नी? धोबी से मेरे कपड़े लेकर रख लेना, सलोनी काकी के लिए मेरी कोठरी में ताक पर दवा रखी है। पिला देना। मुन्नी ने सहमी हुई आंखों से देखकर कहा—तुम कहां जाते हो? 'एक दोस्त के यहां दावत खाने जा रहा हूं।" मोटर चली। मुन्नी ने पूछा-कब तक आओगे? अमर ने सिर निकालकर उससे दोनों हाथ जोड़कर कहा-जब भागीरथ लाए।

            आठ

साथ के पढे, साथ कं खले, दो अभिन्न मित्र, जिनमें धौल-धप्पा, हुमी... मजाक सब कुछ होता रहता था, परिस्थितियों के चक्कर में पड़कर दो अलग रास्तों पर जा रहे थे। लक्ष्य दोनों का एक था, उद्देश्य एक; दोनों ही देश- भक्त, दोनों ही किमानों के शुभेच्छ, पर एक अफसर था. दूसरा कैदी। दोनों सटे हुए बैठे थे, पर जैसे बीच में कोई दीवार खड़ी हो। अमर प्रसन्न था मानो शहादत के जीने पर चढ़ रही हो। सलीम दु:खी था, जैसे भरी सभा में अपनी जगह में उठा दिया गया हो। विकास के सिद्धांत का खुली सभा में समर्थन करके उनकी आत्मा विजयी होती। निरंकुशता की शरण लेकर वह जैसे कोठरी में छिपा बैठा था। सहसा सलीम ने मुस्कराने की चेष्टा करके कहा-क्यों अमर, मुझसे खफा हो? अमर ने प्रसन्न मुख से कहा-बिल्कुल नहीं। मैं तुम्हें अपना वही पुराना दोस्त समझ रहा हूं। उसूलों की लड़ाई हमेशा होती रही है और होती रहेगी। दोस्ती में इससे फर्क नहीं आता।