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450:प्रेमचंद रचनावली-5
 

हूं लेकिन मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।

काशी ने कहा—भैया, हम सब तुम्हारे साथ चलने को तैयार हैं।

अमर ने मुस्कराकर उत्तर दिया—नेवता तो मुझे मिली है, तुम लोग कैसे जाओगे?

किसी के पास इसका जवाब न था। भैया बात ही ऐसी करते हैं कि किसी से उसका जवाब नहीं बन पड़ता।

मुन्नी सबसे पीछे खड़ी थी, उसकी आंखें सजल थीं। इस दशा में अमर के सामने कैसे जाए? हृदय में जिस दीपक को जलाए, वह अपने अंधेरे जीवन में प्रकाश का स्वप्न देख रही थी, वह दीपक कोई उसके हृदय से निकाले लिए जाता है। वह सूना अंधकार क्या फिर वह सह सकेगी!

सहसा उसने उत्तेजित होकर कहा—इतने जने खड़े ताकते क्या हो। उतार लो मोटर से। जन-समूह में एक हलचल मची। एक ने दूसरे की ओर कैदियों की तरह देखा, कोई बोला नहीं।

मुन्नी ने फिर ललकारा–खड़े ताकते क्या हो, तुम लोगों में कुछ दया है या नहीं। जब पुलिस और फौज इलाके को खून से रंग दे, तभी।

अमर ने मोटर से निकलकर कहा—मुन्नी, तुम बुद्धिमती होकर ऐसी बातें कर रही हो। मेरे मुंह पर कालिख मत लगाओ।


मुन्नी उन्मत्तों की भांति बोली—मैं बुद्धिमान् नहीं, मैं तो मूरख हूं, गंवारिन हूं। आदमी एक-एक पत्ती के लिए सिर कटा देता है, एक-एक बात पर जान देता है। क्या हम लोग खड़े ताकते रहें और तुम्हें कोई पकड़ ले जाए? तुमने कोई चोरी की है, डाका मारा है?

कई आदमी उत्तजित होकर मोटर की ओर बढे, पर अमरकान्त की डांट सुनकर ठिठक गए क्या करते हो। पीछे हट जाओ। अगर मेरे इतने दिनों को सेवा और शिक्षा का यही फल है, तो मैं कहूंगा कि मेरा सारा परिश्रम धूल में मिल गया। यह हमारा धर्म-युद्ध है और हमारी जीत हमारे त्याग, हमारे बलिदान और हमारे सत्य पर है। जादू का-सा असर हुआ। लोग रास्ते से हट गए। अमर मोटर में बैठ गया और मोटर चली।

मुन्नी ने आंखों में क्षोभ और क्रोध के आंसू भर अमरकान्त को प्रणाम किया। मोटर साथ जैसे उसको हेदय भी उड़ा जाता हो।