पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
456:प्रेमचंद रचनावली-5
 

456 : प्रेमचंद रचनावली-5 "अमर बाबू कभी अपने घर की बातचीत नहीं करते थे? "कभी नहीं। कभी आना न जाना, न चिट्ठी, न पत्तर। सुखदा ने कनखियों से देखकर कहा-मगर वह तो बड़े रसिक आदमी हैं। वहां गांव में किसी पर डोरे नहीं डाले? मुन्नी ने जीभ दांतों तले दबाई-कभी नहीं बहूजी, कभी नहीं। मैंने तो उन्हें कभी किसी मेहरिया की ओर ताकते या हंसते नहीं देखा। न जाने किस बात पर घरवाली से रूठ गए। तुम तो जानती होगी? | सुखदा ने मुस्कराते हुए कहा-रूठ क्या गए, स्त्री को छोड़ दिया। छिपकर घर से भाग गए। बेचारी औरत घर में बैठी हुई है। तुमको मालूम न होगा। उन्होंने जरूर कहीं-ने-केही दिन लगाया होगा। मुन्नी ने दाहिने हाथ को सांप के फन की भाँति हिलाते हुए कहा-ऐसी बात होती, तो गांव में छिपी न रहती, बहुजी ! मैं तो रोज ही दो-चार बार उनके पास जाती थी। कभी मिर ऊपर न उठाते थे। फिर उस देहात में ऐसी थी ही कौन, जिस पर उनका मन चलता। न कोई पढ़ी-लिखी, न गुन, न सहूर। | सुखदा ने नब्ज टटोली--मदं गुन-सहूर, पढ़ना लिखना नहीं देखते। वह तो रूप-रम् देखते हैं और वह तुम्हें भगवान् ने दिया ही है। जवान भी हो। मुन्नी ने मुंह फेरकर कहा-तुम तो गाली देती हां, बहुजी । मरी और भला वह क्या देखते, जो उनके पांव की जूतियों के बराबर नहीं, लेकिन तुम कौन हो बहजो, तुम यहा के आई? जैसे तुम आई वैसे ही मैं भी आई। तो यहां भी वही हलचले हैं? " हां, कुछ उसी तरह की है। मुन्नी को यह दर्खकर आश्चर्य हुआ कि ऐसी विदुषी देवियां भी जेल में भेजी गई हैं। भन्ना इन्हें किस बात का दु: हागा? उसने डरते-डरने पूछा--तुम्हा स्वामी भी सजा पा गा हो । हां, तभी तो में आई। मुन्नी ने छत की ओर देखकर आशीर्वाद दिया-भगवान् तुम्हारा मनोरथ पूरा करे बहुजी । गद्दी--मसनद लगाने वाली रानियां जब तपस्या करने लगी, तो भगवान् वरदाने भी जल्दी ही देंगे। कितने दिन की मजा हुई है? मुझे तो छ: महीने की है। सुखदा ने अपनी मजा की मियाद बताकर कहा- तुम्हारे जिन्ने में बड़ी मंख्तिया हो रही होंगी। तुम्हारा क्या विचार है, लोग मरती से दब जाएंगे? मुन्नी ने मानो क्षमा-याचना को-मेरे सामने तो लोग यही कहते थे कि चाहे फांसी पर चढ़ जाएं, पर आधे से बेशी लगान न देंगे, लेकिन दिन से सोचो, जब बैलं बधिए छीने जाने लग, सिपाही घरों में घुसेंगे, मरदों पर इंडे और गोलियों की मार पड़ेगी, तो आदमी कहा तक सहेगा? मुझे पकड़ने के लिए तो पूरी फौज गई थी। पचास आदमियों से कम न होंगे। गोली चलते-चलते बची। हजारों आदमी जमा हो गए। कितना समझाती थी-- भाइयो, अपने- अपने घर जाओ, मुझे जाने दो, लेकिन कौन सुनता है? आखिर जब मैंने कसम दिलाई, तो