पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४५७

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कर्मभूमि:457
 

कर्मभूमि : 457 ग लौटे: नहीं, उसी दिन दस-पांच की जान जाती। न जाने भगवान् कहां सोए हैं कि इतना याय देखते हैं और नहीं बोलते। साल में छ: महीने एक जून खाकर बेचारे दिन काटते हैं, चीथड़े पहनते हैं, लेकिन सरकार को देखो, तो उन्हीं की गरदन पर सवार ! हाकिमों को तो अपने लिए बंगला चाहिए, मोटर चाहिए, हर नियमित खाने को चाहिए, मैर-तमाशा चाहिए, पर गरीबों का इतना सुख भी नहीं देखा जाता है जिसे देखो, गरीबों ही का रक्त चूसने को तैयार है। हम जमा करने को नहीं मांगते, न हमें भोग-विलास की इच्छा है, लेकिन पेंट को रोटी और तन ढकने को कपड़ा तो चाहिए। सान-भर खाने-पहनने को छोड़ दो, गृहस्थी का जो कुछ खरच पड़े वह दे दो। बाकी जितना बचे, उठा ले जाओ। मृदा गरीबों को कौन सुनता सुखदा ने देखा, इस गंवारन 4. दय में कितनी सहानभूति, कितनी दया, कितनी जागृति भरी हुई है। अमर क त्याग और सेवा की उसने जिन शब्दों में सराहना की, उसने जैसे सखदा के अंत:करण की सारी मलिनताओं को धोकर निर्मल कर दिया, जैसे उसके मन में प्रकाश आ गया हो, और उसकी सारी शंकाएं और चिंताएं अंधकार की भांति मिट गई हों। अमरकान्त का कल्पना-चित्र उसकी आंखों के सामने आ खड़ा हुआ-कैदियों का जाँघिया- कंटोप पहने, बड़े-बड़े बाल बढ़ाए, मुख मन्निन, कैदियों के बीच में चक्की पीसता हुआ। वह ११यभीत हो रही। उमका हदय कभी इतना कोमल न था। | मेट्रन ने आकर कहा--अब तो आपको नौकरानी मिल गई। इसमें खुव काम ली। सुखदा धीमे स्वर में बोली--मुझे अब नौकरानी की इच्छा नहीं है मेमसाहब, मैं यहां रहना भी नहीं चाहती। आप मुझे मामूली कैदियों में भेज दीजिए। मेट्न छोटे कद की एंग्लो-इंडियन महिन्ना थी। मुंह, छोटी-छोटी आंखे, तराशे हुए बाल, घुटनों के ऊपर तक का स्कर्ट पहने हुए। विस्मय से बोली- यह क्या कहती हो, मुख़दादेवी? नौकरानी मिल गया और जिस चीज का तकलीफ हो हमसे कहो, हम जेलर साहब से कहेगा। | सुखदा ‘ने नम्रता से कहा- आपकी इम कृपा के लिए मैं आपक’ ! यवाद देती हूं। मैं अब किसी तरह की रियायत नहीं चाहती। मैं चाहती हूं कि मुझे मामूल रूदियों की तरह रखी जाय। नीच औरतों के साथ रहना पड़ेगा। खाना भी वही मिलेगा। यहीं तो मैं चाहती हूं। काम भी वही करना पड़ेगा। शायद चक्की पीसने का काम दे दें। “कोई हरज नहीं। "घर के आदमियों से तीसरे महीने मुलाकात हो सकेगी। 'मालूम है। मेट्रन की लाला समरकान्त ने खूब पूजा की थी। इस शिकार के हाथ से निकल जाने का दु:ख हो रहा था। कुछ देर समझाती रही। जब सुखदा ने अपनी राय न बदली, तो पछताती हुई चली गई। मुन्नी ने पूछा--मेम साहब क्या कहती थी? सुखदा ने मुन्नी को स्नेह-भरी आंखों से देखी--अब मैं तुम्हारे ही साथ रहूंगी, मुन्नी ।