पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
462 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


अपने लड़कों के पीछे चलना पड़ा। मैं धर्म की असलियत को न समझकर धर्म के स्वांग को धर्म समझे हुए था। यही मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी। मुझे तो ऐसा मालूम होता है। कि दुनिया का कैंडा ही बिगड़ा हुआ है। जब तक हमें जायदाद पैदा करने की धुन रहेगी, हम धर्म से कोसों दूर रहेंगे। ईश्वर ने संसार को क्यों इस ढंग पर लगाया, यह मेरी समझ में नहीं आता। दुनिया को जायदाद के मोह-बंधन से छुड़ाना पड़ेगा, तभी आदमी आदमी होगा, तभी दुनिया से पाप का नाश होगा। सलीम ऐसी ऊंची बातों में न पड़ना चाहता था। उसने सोचा–जब मैं भी इनकी तरह जिंदगी के सुख भोग लगा तो मरते-समय फिलासफर बन जाऊंगा। दोनों कई मिनट तक चुपचाप बैठे रहे। फिर लालाजी स्नेह से भरे स्वर में बोले-नौकर हो जाने पर आदमी को मालिक का हुक्म मानना ही पड़ता है। इसकी मैं बुराई नहीं करता। हां, एक बात कहूंगा। जिन पर तुमने जुल्म किया है, चलकर उनके आंसू पोंछ दो। यह गरीब आदमी थोडी-सी भलमन से काबू में आ जाते हैं। सरकार की नीति तो तुम नहीं बदल सकते, लेकिन इतना तो कर सके.' हो कि किसी पर बेजा सख्ती न करो। सलीम ने शरमाते हुए कहा--लोगों को गुस्ताखी पर गुस्सा आ जाता है, वरना मैं तो - नहीं चाहता कि किसी पर सख्ती करू। फिर सिर पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी हैं। नगरान । वसूल हुआ, तो मैं कितना नालायक समझा जाऊंगा? समरकान्त ने तेज होकर कहा-तो बेटा, लमान तो न वसूल होगा, ह आदमयों के ? से हाथ रंग सकते हो।। यही तो देखना है। 'देख लेना। मैंने भी इसी दुनिया में बाल सफेद किए हैं। हमारे किमान अफस सूरत से कांपते थे, लेकिन जमाना बदल रहा है। अब उन्हें भी मान-अपमान को ख़या हो । है। तुम मुफ्त में बदनामी उठा रहे हो।' अपना फर्ज अदा करना बेदनामी है, तो मुझे उसको परवाह नहीं। समरकान्त ने अफसरों के इस अभिमान पर हंसकर कहा-फर्ज में थोड़ी ..मी मि. मिला देने से किसी का कुछ नहीं बिगड़ता, हां, बन बहुत कुछ जाता है, यह बेचारे कि । । ऐसे गरीब हैं कि थोड़ी-सी हमदर्दी करके उन्हें अपना गुलाम बना सकते हो। हुकमत वह ३ । छ भलमनमो का बरताव चाहते हैं। जिस ओरत को तुम्मन हंटरों से मार, ३ एक बार माता कहकर उसकी गरदन काट सकते थे। यह मन मुमझा कि तुम उन पर हुक करने आए हो। यह समझो कि उनकी सेवा करने आए हो । मान लिया, तुम्हें तलब मक से मिलती है, लेकिन आती तो है इन्हीं की गांठ में। कोई मूर्ख हो तो उसे समझाऊँ। तुम भगवः । की कृपा से आप ही विद्वान् हो। तुम्हें क्या समझाऊ? तुम पुलिस वालों की बातों में भी । यही बात है न? सलीम भला यह कैसे स्वीकार करता? लेकिन समरकान्त अड़े रहे- मैं इसे नहीं मान सकता। तुम तो किसी से नज़र नहीं नन्। चाहते, लेकिन जिन लोगों को रोटियां नोच-खसोट पर चलती हैं। उन्होंने जरूर हुम्हें भरा हो । तुम्हारा चेहरा कहे देता है कि तुम्हें गरीबों पर जुल्म करने का अफसोस है। मैं यह तो ना! चाहता कि आठ आने से एक मई भी ज्यादा वसूल करो, लेकिन दिलजोई के साथ तुम 7