पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४६४

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464:प्रेमचंद रचनावली-5
 

सेठजी तो संध्योपासन करने बैठे, फिर पाठ करने लगे। इधर सलीम के साथ के एक हिन्दु कांस्टेबल ने पूरी, कचौरी, हलवा, खीर पकाई। दही पहले ही से रखा हुआ था। सलीग खुद आज यही भोजन करेगा। सेठजी संध्या करके लौटे, तो देखा दो कंबल बिछे हुए हैं और थालियां रखी हुई हैं। । सेठजी ने खुश होकर कहा-यह तुमने बहुत अच्छा इन्तजाम किया। सलीम ने हंसकर कहा--मैंने सोचा, आपका धर्म क्यों लें, नहीं एक ही कंबल रखती। अगर यह खयाल है, तो तुम मेरे कंबल पर आ जाओ। नहीं, मैं ही आता हूं। वह धाली उठाकर सलीम के कंबल पर आ बैठे। अपने विचार में अजि उन्होंने अपने जीवन का सबसे महानु त्याग किया। सारी संपत्ति दान देकर भी उनका हृदय इतना गौरवान्वित न होता! सलीम ने चुटकी ली–अब तो आप मुसलमान हो गए। सेठजी बोले—मैं मुसलमान नहीं हुआ। तुम हिन्दू हो गए। चार प्रात:काल समकान्त और सलीम डाकबंगले से गांव की ओर चले। पहाड़ियों से नीली भाप उठ रही थी और प्रकाश का हृदय जैसे किसी अव्यक्त वेदना से भारी हो रहा था। चारों और सन्नाटा था। पृथ्वी किसी रोगों की मौत कोहरे के नीचे पड़ी सिहर रही थी। कुछ लोग बंदरों की भाति छप्परों पर बैठे उसकी मरम्मत कर रहे थे और कहीं-कहीं स्त्रियो गोबर पाथ रही थीं। दोनों आदमी पहले सलोनी के घर गए। सलोनी की वो चढ़ा हुआ था और सारी देह फोड़े की भांति दख रही थी मगर उसे गाने को धुन सवार थी-- : सन्तो देखत जग बौराना। सच कहो तो मारन घावे, झुठ जगत पतिआना, सन्तो देखत... मनोव्यथा जब असह्य और अपार हो जाती है, जब उसे कहीं जाण नहीं मिलती; जब वह रुदन और अंदन की गोद में भी आश्रय नहीं पाती, तो वह संगीत के चरणों पर जा गिरती है। समरकान्त ने पकारा--भाभी, जरा बाहर तो आओ। सलोनी चटपट उठकर पके बालों को घूघट से छिपाती, नवयौवना की भाँति लजाती आकर खड़ी हो गई और पूछा--तुम कहां चले गए थे, देवरजी? । सहसा सलीम को देखकर वह एक पम पीछे हट गई और जैसे गाली दी-यह तो हाकिम | फिर सिंहनी की भांति झपटक उसने सलीम को ऐसा धक्का दिया कि वह गिरते- गिरते बचा, और जब तक समरकान्त उसे हटाएं-हटाएं, सलीम की गरदन पकड़कर इस तरह दबाई, मानो पँट देगी। सेठजी ने उसे बल-पुर्वक हटाकर कहा-पगला गई है क्या, भाभी? अलग हट जा, सुनती नहीं? सलोनी ने फटी-फटी प्रज्वलित आंखों से सलीम को घूरते हुए कहा-मार तो दिखा