पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४६५

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कर्मभूमि:465
 

कर्मभूमि : 465 दं, आज मेरा सरदार आ गया है। सिर कुचलकर रख देगा । समरकान्त ने तिरस्कार भरे स्वर में कहा—सरदार के मुंह में कालिख नगा रही हो और क्या? बूढी हो गई, मरने के दिन आ गए और अभी लड़कपन नहीं गया। यही तुम्हारा धर्म है कि कोई हाकिम द्वार पर आए तो उसको अपमान करो । सलोनी ने मन में कहा-यह लाला भी ठकुरसुहाती करते हैं। लड़की पकड़ गया है न, इसी से। फिर दुराग्रह से बोली-पूछो इसने सबको पीटा नहीं था? सेठजी बिगड़कर बोले—तुम हाकिम होती और गांव वाले तुम्हें देखते ही लाठियां ले- लेकर निकल आते, तो तुम क्या करतीं? जब प्रजा लड़ने पर तैयार हो जाय, तो हाकिम क्या पूजा करे 1 अमर होता तो वह लाठी लेकर न दौड़ता? गांव वालों को लाजिम था कि हाकिम के पास आकर अपना-अपना हाल कहते, अरज विनती करते, अदब से, नम्रती मे। यह नहीं कि हाकम को देखा और मारने दौड़े, मानो वह तुम्हारा दुश्मन है। मैं इन्हें समझा-बुझाकर लाया था कि मेल करा दें, दिलों की सफाई हो जाय, और तुम उनसे लड़ने पर तैयार हो गई। यहां की हलचल सुनकर गांव के और कई आदमी जमा हो गए पर किसी ने सलीम को सलाम नहीं किया। सेबकी त्यारियां चढी हुई थीं।। समरकान्त ने उन्हें संबोधित किया-तुम्ही लोग मोची। यह साहब तुम्हारे हाकिम हैं। जब रियाया हाकिम के साथ गस्ताखो करती हैं, तो हाकिम को भी कधि 37 जाय तो कोई ताज्जुब नहीं। यह बेचारे तो अपने को हाकिम समझत ही नहीं। लेकिन इज्जन तो सभी चाहते हैं. हाकिम हो या न हों। कोई आदमी अपनी बेइजती नहीं देख सकता। बोलो गदड़, कुछ गलत कहता हूँ? गूदड़ ने सिर झुकाकर कहा–नहीं मालिक, सच ही कहते हो। मुदा वह तो बावली है। उसकी किसी बात का बरी न मानो। स्रबके मंह में कालिख लगा रही है और क्या। “यह हमारे लड़के के बराबर हैं। अमर के साथ पढे, उन्हीं के माध खेले। तुमने अपनी आंखों देखा कि अमर को गिरफ्तार करने यह अकेले आए थे। क्या सफर | क्या पुलिस को भेजकर न पकड़वा सकते थे? सिपाही हुक्म पाते ही आते ओर धक्के दर बांध ले जाते। इनकी शराफत थी कि खुद आए और किसी पुलिस को साथ न लाए। अमर ने भी यहो किया, ‘ो उसका धर्म था। अले आदमी को बेइज्जत करना चाहते तो क्या मश्किल था? अब तक जी कुछ हुआ, उसका इन्हें रज हैं, हालांकि कसूर तुम लोगों का भी था? अब तुम भी पिछली बातों को भूल जाओ। इनकी तरफ से अब किसी तरह की सख्ती न होगा। इन्हें तुम्हारी जायदाद नो पाम करने का हुक्म मिलेगा, नीलाम करेगे गिरफ्तार करने का हुक्म पिलेगा रिफ्तार करेंगे, तुम्हें बुरा न लगना चाहिए। तुम धर्म की लड़ाई लड़ रहे हो। लड़ाई नहीं, यह तपस्या हैं। तपस्या में क्रोध और द्वेष आ जाता है, तो तपस्या भंग हो जाती है। स्वामीजी बोले-धर्म की रक्षा एक ओर से नहीं होती । सरकार नीति बनाने है। उसे नीति की रक्षा करनी चाहिए। जब उसके कर्मचारी नीति का पैरों से कुचलते हैं, तो फिर जनता कैसे नीति की रक्षा कर सकती हैं? समरकान्त ने फटकार बताई-आप संन्यासी होकर ऐसा कहते हैं, स्वामीजी ! आपको अपनी नीतिपरकता से अपने शासकों को नीति पर लाना है। यदि वह नीति पर ही होते, तो आपको यह तपस्या क्यों करनी पड़ती? आप अनीति पर अनीति से नहीं, नीति से विजय