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466 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


पा सकते हैं। स्वामीजी का मुह जरा-सा निकल आया। जबान बंद हो गई। सलोनी की पीडित हृदय पक्षी के समान पिंजरे से निकलकर भी कोई आश्रय खोज रहा था। सज्जनता और मत्प्रेणा से भरा हुआ यह तिरस्कार उसके सामने जैसे दाने बिखेरन लगा। पक्षी ने दो-चार बार गग्दन झुकाकर दानों को सतर्क नेत्रों से देखा, फिर अपने रक्षक, को ‘ आ आ' करते सुना और पैर फैलाकर दान पर उतर आया। सलोनी आखों में आसू भरे दोनों हाथ जोड़े, सलीम के सामने अाकर बोली -सरवार मुझसे बड़ी रखता हो गई। माफी दीजिए। मुझे जूतो से पीटिए सेठजी ने कहा—सरकार नही बेटा कहो।

  • "बेटा मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मृरख है बावली है। जो चाहें सजा दी।

सलीम के युवा नत्र भी सजल हो गए। हुकमन का रोल और अधिकार का ३ । गया। बोला-माताजी मुझे शर्मिदा न करो। यह जितने लोग बड़हे में उन सबमें गै? " यां नहीं है उन्को भी अपनी खेत 3 को मुफी चाना है । गृदट्ट ने कहा- हम तुम्हारे नाम है भैया लेकिन मृतु जो उ आदमी तो क्यों इतनी बात होती? भ्वामीजं ने मकान के कान में कहा मुझे नी सा जा रहा है कि " ।' सनी ने अश्विानि दिगो कभी नहीं। नौकरी चाहे चला जाय पर तुम मा १ र शरई अदमी है। तो क्या हम पूरी लगाने देना पड़ा? ।' जब कुछ है ही नहीं, ! दा" का म?' त्रामीजी अट तो भलाभ ने अर्को पटना के कान में कुछ कहा। मेठजी मुस्कराकर बाल-यह य म नागर के दवा -दारू के लिए कि म । कर रह हे! ३ ) में मम नी मा कय दिन' है। रामो ? ३" । चलकर मुझसे कार्य ल ना। र न कृतज्ञता को दबाने गा कह; 'भैया' पर मुग्न ३ क पद भी न । ' ममरकान्त बाले- यह मा मुन्ना कि यह मा म्पर्य है। मैं अपने बाप त घर छ । लय। नदी में ना हो गला दबा नि ६ वह न लौटा रहा है। | गाव जहामियप्पा या इ ! था वा निक नजर आने ल ! । कमि 1 / म हुन्न यः हो । पांच अमाकान्त झा "जन में राज जि का समाचार किमी-न-किमी तरह मिल आता था। 1 217। दिन मार-पीट और अग्रकार की उर्वर पिन उपके क्रोध का वगपार न रहा और में । बुझकर राख हो जाती है। श्री दा के बाद क्रोध की जगह केवल नैराश्य रह गया। लगा। रोन-पीटने के दर्द भई हाय राय जैम भूमान् हा उपक सामने सिर पीट रही थी। ॐ ' हए घरों की नट जैसे उसे मुन्नमा आनी थी। वह सा भपण दुश्य कल्पनातति हो