पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४६७

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कर्मभूमि:467
 

कर्मभूमि :467 सर्वनाश के समीप जा पहुंचा था और इसकी जिम्मेदारी किस पर थी? रुपये तो यों भी वसूल किए जाते, पर इतना अत्याचार तो न होता, कुछ रिआत तो की जाती। मरकार इस विद्रोह के बाद किसी तरह भी गर्मी का बर्ताव न कर सकती थी, लेकिन कृपया न दे सकना तो किसी मनुष्य का दोष नहीं ! यह मंदी की बला कहां से आई, 'कन जाने? ग्रह ना एसा ही है कि आंधी में किसी को छपर उड़ जाए और सरकार में दंड दे। यह न किसके हित के लिए हे? इसका उद्देश्य क्या हैं? इन विचारों में तंग आकर उसने नैराश्य में मुंह छिपाया। अत्याचार हो रहा है। होने दी। मैं क्या करू) कर ही क्या सकता है। में कौन है? मुझसे मनवा कमजोरी के भाग्य में जय तन्क मार खाना लिखी है, मार खाएंगे। में हो यहा या फूलों की मेज पर साया हुआ हैं? अगर संसार के मारे प्रारी प्रश) हो जाए, तो मैं या कर्जा कु रा , होग'। यह भी ईश्वर की लीला है ! वाह रे तेरी लीनः । अगर ऐम ही लीना भी नई ग? अता है, तो दम दयामय स्यां अनने ही 2 जबर्दम्त का उा {भा र २ , भ वाय रा? जब सामने कोई विकट पमन्या 37: जानी , नी उफ! भन लिका की ओर झुक जाना था। पर विश्व ग्वन हान, अव्यवस्थि, प्य ज्ञान दृतः ।। उसने बान चटना शुरू किया ?किन भारत्र: मन क पा ? अपनय के हा था- 'रई। 7।।, यि के बाल के ? ना पा रहा है। इस कदर के कर पराका वन कार में रान दर्ग। पिर मनी के प्रति समर ! स्त्री हुई। म सिपहियों न गिरफ्तार कर यो में आप च निरा न स ह उनके मुंह में अनायास हा निल्न --हाय 7 यह क्या करने र । न मन हो गया - चान बनगा: । गत का 57 यह ः 3 में फिर वही ३न कान: ६ जा बना। इस सारी

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दिया था और अथाह नन इवा " रा ४११ । ३ जना उम कमा निनक का सहारा न न दर्त? थी। वह इधर "न' रहा है और अपने " " 'Yखा नि उणियों को किध लिए जा रहा है ? 'सका स्यः अत् होगा? इस का धरा को कहीं चाँद *? झन्नुर है। वह चाहता था, कहीं से अनाज आर. बड़े + । बन्दै अ पर ध। रास्ता है पर चारों तरफ निंत्रि, मन का था। कडी में कोई आज ना तो कई प्रकाश नहीं मिलता। जब वह वयं 33धकार में डा हुआ हैं वयं भी पता अपने स्व: की शीतल छाया है, या विवंम की भीषण ज्वाला, न इसे का अधिकार ? कि इन प्राणियों की जान अफ़त में डाले। 'इभी भनिम्पिक पराभव की दशा में उसई अत:कर' में निकला :-ईश्वर, मु प्रकाश दा, मुझे उबारी। और वह रोने लगा। मुह का वक्त था, केंदियों की हाजिर हो गई थी। अपर का मन कुछ शांत था। वह प्रचंड़े आवेग शांत हो गया था और आकाश में आ गई गई बैठ गई थी। ये ; साफ-साफ दिखाई देने लगी थी। अमर मन में पिछली घटना की आलोचना कर रहा था। कारण और कार्य के सत्रों को मिलाने की चेष्टा करते हा सहसा उसक ठकिर- सी लगी-नैना का यह पत्र और सुखदा की गिरफ्तारी। इसी से तो वह आवेश में आ गया था और समझौते का मुसाध्य मार्ग छोड़कर उस दुर्गम पथ की ओर झुॐ पड़ा था। इस ठोकर ने जैसे उसकी आंखें खोल