पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४६८

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468:प्रेमचंद रचनावली-5
 


दीं। मालूम हुआ, यह यश-लालसा का, व्यक्तिगत स्पर्द्ध का, सेवा के आवरण में छिपे हुए अहंकार का खेल था। इसे अविचार और आवेश का परिणाम इसके सिवा और क्या होता? अमर के समीप एक कैदी बैठा बाने बट रहा था। अमर ने पूछा-तुम कैसे आए, भई? उसने कौतूहल से देखकर कहा–पहले तुम बताओ। "मुझे तो नाम की धुन थी। "मुझे धन की धुन थी ।' उसी वक्त जेलर ने आकर अमर से कहा-तुम्हारी तबादला लखनऊ हो गया है। तुम्हारे बाप आए थे। तुमसे मिलना चाहते थे। तुम्हारी मुलाकात की तारीख न थी। साहब ने इंकार कर दिया। अमर ने आश्चर्य से पूछा–मेरे पिताजी यहां आए थे? हां-हां, इसमें ताज्जुब की क्या बात है? मि. सलीम भी उनके साथ थे।' इलाके की कुछ नई खबर? तुम्हारे बाप ने शायद सलीम साहब को समझाकर गांव वालों से मेल करा दिया है। शरीफ आदमी हैं, गांव वालों के इलाज वगैरह के लिए एक हजार रुपये दे दिए। अमर मुस्कराया। 'उन्हीं की कोशिश से तुम्हारा तबादला हो रहा है। लखनऊ में तुम्हारी बीवी भी आ गई हैं। शायद उन्हें छ: महीने की सजा हुई है। | अमर खड़ा हो गया-सुखदा भी लखनऊ में है। अमर को अपने मन में विलक्षण शांति का अनुभव हुआ। वह निराशा कहां गई? दुर्बलता कहीं गई? | वह फिर बैठकर बान बटने लगा। उसके हाथों में आज गजब की फुर्ती है। ऐसा कायापलट । ऐसा मंगलमय परिवर्तन ! क्या अब भी ईश्वर की दया में कोई संदेह हो सकता है? उसने काटे बोए थे। वह सब फुल हो गए। सुखदा आज जेल में है। जो भोग-विलास पर आसक्त थी, वह आज दोनों की सेवा में अपना जीवन सार्थक कर रही है। पिताजी, जो पैसों को दांत से पकड़ते थे; वह आज परोपकार में रत हैं। कोई दैवी शक्ति नहीं है तो यह सब कुछ किसको प्रेरणा से हो रहा है। उसने मन को संपूर्ण श्रद्धा से ईश्वर के चरणों में वंदना की। वृह भार, जिसके बोझ से वह दबा जा रहा था, उसके सिर से उतर गया था। उसको देह हल्की थी, मन हल्का था और आगे आने वाली ऊपर को चढ़ाई, मानो उसका स्वागत कर रही थी। अमरकान्त को लखनऊ जेल में आए आज तीसरा दिन है। यहां उसे चक्की का काम दिया गया है। जेल के अधिकारियों को मालूम है, वह धनी का पुत्र है, इसलिए उसे कठिन परिश्रम देकर भी उसके साथ कुछ रिआयत की जाती है। | एक छप्पर के नीचे चक्कियों की कतारें लगी हुई हैं। दो-दो कैदी हरेक चक्की के पास खड़े आटा पीस रहे हैं। शाम को आटे की तौल होगी। आटा कम निकला तो दंड मिलेगा।