पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४७

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गबन : 47
 


लिखना चाहिए थीं। अगर तुमने छोड़ दी होती, तो मुझे दु:ख होता। मैंने तुम्हारी निंदा की थी। यह कहकर वह मुस्कराई।

रमानाथ-जो बुरा है, दगाबाज है, धूर्त है, उसकी निंदा होनी ही चाहिए।

जालपा ने व्यग्र होकर पूछा-तुमने चिट्ठियां पढ़ लीं क्या?

रमा ने नि:संकोच भाव से कहा-हां, यह कोई अक्षम्य अपराध है?

जालपा कातर स्वर में बोली-तब तो तुम मुझसे बहुत नाराज होगे?

आंसुओं के आवेग से जालपा की आवाज रुक गई। उसका सिर झुक गया और झुकी हुई। आंखों से आंसुओं की बूंदें आंचल पर गिरने लगीं। एक क्षण में उसने स्वर को संभालकर कहा-मुझसे बड़ी भारी अपराध हुआ है। जो चाहे सजा दो, पर मुझसे अप्रसन्न मत हो। ईश्वर जानते हैं, तुम्हारे जाने के बाद मुझे कितना दुःख हुआ। मेरी कलम से न जाने कैसे ऐसी बातें निकल गई।

जालपा जानती थी कि रमा को आभूषणों की चिंता मुझसे कम नहीं है, लेकिन मित्रों से अपनी व्यथा कहते समय हम बहुधा अपना दु:ख बढाकर कहते हैं। जो बातें परदे की समझ जाती हैं, उनकी चर्चा करने से एक तरह का अपनापन जाहिर होता है। मारे मित्र समझते हैं, हमसे जरा भी दुराव नहीं रखता और उन्हें हमसे सहानुभूति हो जाती है। अपनापन दिखाने कयह आदत औरों में कुछ अधिक होती है।

रमा जालपा के आंसू पोंछते हुए बोला—मैं तुमसे अप्रसन्न नहीं हूं, प्रिये । अप्रसन्न होने की तो कोई बात ही नहीं है। आशा का बिलंब ही दुराशा है, क्या मैं इतना नहीं जानता। अगर तुमने मुझे मना न कर दिया होता, तो अब तक मैंने किसी-न-किसी तरह दो-एक चीजें अवश्य ही बनवा दी होतीं। मुझसे भूल यही हुई कि तुमसे सलाह ली। यह तो वैसा ही है जैसे मेहमान को पूछ- पूछकर भोजन दिया जाय। उस वक्त मुझे यह ध्यान न रहा कि संकोच में आदमी इच्छा होने पर भी नहीं-नहीं करता है। ईश्वर ने चाहा तो तुम्हें बहुत दिनों तक इंतजार न करना पड़ा।

जालपा ने सचिंत नेत्रों से देखकर कहा-तो क्या उधार लाओगे?

रमानाथ-हां, उधार लाने में कोई हर्ज नहीं है। जब सूद नहीं देना हैं तो जैसे नगद वैसे उधार। ऋण से दुनिया का काम चलता है। कौन ऋण नहीं लेता। हाथ में रुपया आ जाने से अलल्ले-तलल्ले खर्च हो जाते हैं। कर्ज सिर पर सवार रहेगा, तो उसकी चिंता हाथ रोके रहेगी।

जालपा–मैं तुम्हें चिंता में नहीं डालना चाहती। अब मैं भूलकर भी गहनों का नाम न लूंगी।

रमानाथ-नाम तो तुमने कभी नहीं लिया, लेकिन तुम्हारे नाम न लेने से मेरे कर्तव्य का अंत तो नहीं हो जाता। तुम कर्ज से व्यर्थ इतना डरती हो। रुपये जमा होने के इंतजार में बैठा रहूंगा, तो शायद कभी न जमा होंगे। इसी तरह लेते-देते साल में तीन-चार चीजें बन जाएंगी।

जालपा–मगर पहले कोई छोटी-सी चीज लाना।

रमानाथ-हां, ऐसा तो करूंगा ही।

रमा बाजार चला, तो खूब अंधेरा हो गया था। दिन रहते जाता तो संभव था, मित्रों में से किसी की निगाह उस पर पड़ जाती। मुंशी दयानाथ ही देख लेते। वह इस मामले को गुप्त ही रखना चाहता था।