पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४७३

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कर्मभूमि:473
 

अमर ने संदेह के स्वर में पूछा-लेकिन इस वक्त तो वह अपने क्वार्टर में सो रहा होगा? ठिगने कैदी ने राह बताई--यह हमारा काम है भैया, तुम क्या जानो? सबों ने मुंह मोड़कर कनफुमकियों में बातें शुरू कीं। फिर पांचों आदमी खड़े हो गए। ठिगने कैदी ने कहा-हममें से जो फूटे, उसे गऊ हत्या ! यह कहकर उसने बड़े जोर से हाय-हाय करना शुरू किया। और भी कई आदमी चीखने चिल्लाने लगे। एक क्षण में वार्डर ने द्वार पर आकर पृछा-तुम लोग क्यों शोर कर रहे हो? क्या बात है? ठिगने कैदी ने कहा- बात क्या है, काले खां की हालत खराब है। जाकर जेलर साहब को बुला लाओ। चटपट। वार्डर बोला—वाह बे । चुपचाप पड़ा रह 1 बड़ा नवाब का बेटा बना है। हम कहते हैं जाकर उन्हें भेज़ दो, नहीं, ठीक नहीं होगा। काले खां ने आंखें खोलीं और क्षीण स्वर में बलिा-क्यों चिल्लाते हो यारो, मैं अभी मग 'नहीं हू। जान पड़ता है, पीठ की हड्डी में चोट है। | ठिगने कैदी ने कही-उसी को बदला चुकाने की तैयारी है पठान । | काले वा निरस्कार के स्वर में बोला-क्रिसम वदला चक्रा भाई, अल्लाह से? अल्लाह की यही मरजी है, तो उसमें दृमरा कौन दखल दे सकता है? अल्लाह की मर्जी के बिना कहीं एक पती भी हिल सकती है? जर मुझे पानी पिला दी। और देखो, जब मैं मर जाऊ, तो यहां जितने भाई हैं, सब मेरे लिए खुदा से दुआ करना। और दुनिया में मेरा कौन है? शायद तुम लोगों की दुआ से मेरी निजात । जाय। अमर ने उसे गोद में संभालकर पानी पिलाना चाहा, मगर घंटे कंठ के नीचे न उतरा। वहे जार में कराहकर फिर लेट गया। ठिगने कैदी ने दांत पीसकर कहा--ऐसे बदमाम की गरदन तो उलटी छरी से काटनी चाहिए । काले खां दीनभाव से रुक-रुककर बोला-क्यों मेरी नजात को द्वः बद करते हो, भाई ! दुनिया तो बिगड़ गई, क्या आकबत भी बिगाड़ना चाहते हो? अल्लाह से दुआ करो, सब पर रहम करे। जिंदगी में क्या कम गुनाह किए हैं कि मरने के पीछे पांव में बेड़ियां पड़ी रहें । या अल्लाह, रहम करे।। इन शब्दों में मरने वाले की निर्मल आत्मा मानो व्याप्त हो गई थी। बातें वही थीं, तो रोज सुना करते थे, पर इस समय इनमें कुछ ऐसे द्रावक, कुछ ऐसी हिला देने वाली सिद्धि थी कि सभी जैसे उसमें नहा उठे। इस चुटको भर राख ने जैसे उनके तापमय विकारों को शांत कर दिया। । प्रात:काल जब काले खां ने अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दी तो ऐसा कोई कैदी ने था, जिसकी आंखों से आंसू न निकल रहे हों, पर और को रोना दु:ख को धा, अपर को रना सुख का था। औरों को किसी आत्मीय के खो देने का सदमा था, अमर को उसके और ममीप हो जाने का अनुभव हो रहा था। अपने जीवन में उसने यही एक नवरत्न पाया था, जिसके सम्मुख वह श्रद्धा से सिर झुका सकता था और जिससे वियोग हो जाने पर उसे एक वरदान पा जाने का भान होता था।