पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४७५

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कर्मभूमि:475
 

कर्मभूमि : 475 देने में कष्ट होता है; लेकिन मजबूर होकर देते हैं। कोई आदमी खुशी से टैक्स नहीं देता। गजनवी इस आज्ञा का विरोध करना अनीति ही नहीं, अधर्म समझता था। केवल जाना की पाबंदी से उसे संतोष न हो सकता था। वह इस हुक्म की तामील करने के लिए सब कुछ करने को तैयार था। सलीम का कहना था-हम सरकार के नौकर केवल इसलिए हैं कि प्रजा की सेवा कर सकें, उसे सुदशा की ओर ले जा सकें, उसकी उन्नति में सहायक हो सकें। यदि सरकार की किसी आज्ञा से इन उद्देश्यों की पूर्ति में बाधा पड़ती है, तो हमें उस आज्ञा को कदापि न मानना चाहिए। | गजनवी ने मुंह लबा करके कहा- मुझे खौफ है कि गवर्नमेंट तुम्हारा यहां से तबादला कर देगी। “तबादला कर दे इमकी मुझे परवाह नहीं, लेकिन मेरी रिपोर्ट पर गौर करने का वादा करें। अगर वह मुझे यहां से हटा कर मेरी रिपोर्ट को दाखिल दफ्तर करना चाहेगी, तो मैं इस्तीफा दे दूंगा।" गजनवी ने विस्मय से उसके मुंह की ओर देखा।

    • आप गवर्नमेंट की दिक्कतों का मतलक अंदाजा नहीं कर रहे हैं। अगर वह इतनी

आसानी से दबने लगे, तो आप समझते हैं, रिआया कितनी शर हो जाएगी ! जरा-जरा-सी बात पर तूफान ने हो जाएंगे। और यह महज इस इलाके का मुआमला नहीं है, सारे मुल्क में यही तहरीक जारी है। अगर सरकार अस्सी फीसदी काश्तकारों के साथ रिआयत करे, तो उसके लिए मुल्क का इंतजाम करना दुश्वार हो जाएगा। सलीम ने प्रश्न किया---गवर्नमंट रिया के लिए है, रिआया इगवर्नमेंट के लिए नहीं। काश्तकारों पर जुल्म करके, उन्हें भूखों मारकर अगर गवमेंट जिंदा रहना चाहती हैं, तो कम- से कम मैं अलग हो जाऊंगा। अगर मालियत में कमी आ रही है तो सरकार को अपना खर्च घटाना चाहिए, न कि रिया पर सख्तयों को जाएं। गजनवी ने बहुत ऊच-नीच सुझाया, लेकिन सलीम पर कोई असर न हुआ। उसे डंडों से लगान वसूल करना किसी तरह मंजूर न था। आखिर गजनवी ने मजबूर होकर उसकी रिपोर्ट ऊपर भेज दी, और एक हो सप्ताह के अदर गवर्नमेंट ने उसे पृथक् कर 'गा। ऐसे भयंकर विद्रोही पर वह कैसे विश्वास करती? | जिस दिन उसने नए अफसर को चार्ज दिया और इलाके से विदा होने लगा, उसके डेरे के चारों तरफ स्त्री-पुरुषों का एक मेला लग गया और सब उससे मिन्नतें करने लगे, आप इस दशा में हमें छोड़कर न जाएं। सलीम यही चाहता था। बाप के भय से घर न जा सकता था। फिर इन अनाथों से उसे स्नेह हो गया था। कुछ तो दया और कुछ अ अपमान ने उसे उनका नेता बना दिया। वहीं अफसर जो कुछ दिन पहले अफसरी के मद से भरा हुआ आया था, जनता का सेवक बन बैठा। अत्याचार सहना अत्याचार करने से कहीं ज्यादा गौरव की बीत मालूम हुई। आंदोलन की बागडोर सलीम के हाथ में आते ही लोगों के हौसले बंध गए। जैसे पहले अमरकान्त आत्मानन्द के साथ गांव-गांव दौड़ा करता था, उसी तरह सलीम दौड़ने लगा। वहीं सलीम, जिसके खून के लोग प्यासे हो रहे थे, अब उस इलाके का मुकुटहीन राजा था। जनता उसके पसीने की जगह खून बहाने को तैयार थी।