पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४९७

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कर्मभूमि:497
 

चेहरों पर विजय की दीप्ति नहीं, शोक की छाया अॅकित थी। अधीर होकर बोला--कहां है नैना, यहीं क्यों नहीं आती? उसका जी अच्छा नहीं है क्या? | रेशको ने हृदय को संभालकर कहा--नैना को आकर चौक में देखना बेटा, जहां उसकी मूर्ति स्थापित होगी। नैना आज तुम्हारे नगर की रानी है। हरेक हृदय में तुम उसे श्रद्धा के सिंहासन पर बैठी पाओगे।। । अमर पर जैसे वज्रप्राप्त हो मया। वह वहीं भूमि पर बैठ गया और दोनों हाथों से मुंह ढांपकर फूट-फूटकर रोने लगा। उसे जान पड़ा, अब संसार में उसका रहना वृथा है। नैना स्वर्ग की विभूतियों से जगमती, मानो उसे खड़ी बुला रही थी। रेणुका ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा-बेटा, क्यो उसके लिए रोते हो, वह मरी नहीं, अमर हो गई । उसी के प्राणां से इस यज्ञ की पूर्णाहुति हुई है। सलीम ने गला माफ करके पूछा--बात क्या हुई? क्या कोई गोली लग गई? रेणुका ने इस भाव का तिरस्कार करके कहा-नही भैया, गन्न क्या चलती, किसी से लड़ाई थी? जिस वक्त वह मैदान से जुलूस के साथ म्युनिसिपैन्निटी के दफ्तर की ओर चली, तो एक लाख आदमी से कम न थे। उसी वक्त मनीराम ने आकर उस पर गाली चुलो दी। वहीं रि' ।। कुछ मुह में न कह पाई। रात-दिन भैया ही में उसके प्राण लगे रहते थे। वह तो स्वर्ग गई, हाँ, हम लोगों का गने के लिए छोड़ गई। अमर को ज्यों-ज्यों नैना के जीवन की बाते याद आती थी, उसके मन में जैसे विषाद् का एक नया सोता खुल जाता था। हाय उमेदवों के साथ उसने एक भी कर्मव्य का पालन न किया। यह सोच-सोचकर उसका जी कचोट उठता था। वह अगर घर छोड़कर न भागा होता, तो लालाजी क्यो उसे लोरी मनीराम के गले बाध देने । और क्यों उसको यह करुणाजनक अंत होता । लेकिन हसा इस शोक-सागर में डूबते हुए उसे ईश्वरीय विधान की नौका-सी मिल गई। ईश्वरीय प्रेरणा के बिना किसी में सवा का ऐसा अनु। केम आ सव' है। जीवन का इससे शुभ उपयोग और क्या हो सकता है? गृहस्थी के संचय में स्वार्थ की उपासना में, तो सारी दुनिया मरती है। परोपकार के लिए मरने का सौभाग्य तो संस्कार गलो ही को प्राप्त है। अमर की शोक-मग्न आत्मा ने अपने चारों ओर इंश्वरीय दरी का चमत्कार देखा-व्यापक, असीम, अनंत। सलीम ने फिर पूछा- बेवारे लालाजी को तो बड़ा रंज हुआ होगा? रेणुका ने गर्व से कहा-वह तो पहले ही गिरफ्तार हो चुके थ बेटा, और शान्तिकुमार अमर को जान पड़ा, उसकी आंखो की ज्योति दुगुनी हो गई है, उसकी भुजाओं में चौगुना वल आ गया है, उसने वहीं ईश्वर के चरणों में सिर झुव दिया और अब उसकी आखो से जो मोती गिरे, वह विषाद के नहीं, उल्लास और गर्व के थे। उसके हृदय में ईश्वर की ऐसी निष्ठा का उदय हुआ, मानो वह कुछ नहीं है, जो कुछ है, ईश्वर की इच्छा है, जो कुछ करता है, वही करता है; यही मंगल-मूल और सिद्धियों को दाता है। सकीरा और मुन्नी दोनों उसके सामने खड़ी धी-सी चलने लगती थी, उसी छवि था। उनकी छवि को देखकर उसके मन में वासना की जो म आज उसमे निर्मल प्रेम के दर्शन पाए, जो आत्मा के विकारो तो शांत कर देता है, उसे सत्य