पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४९८

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498:प्रेमचंद रचनावली-5
 
के प्रकाश से भर देता है। उसमें लालसा की जगह उत्सर्ग, भोग की जगह तप का संस्कार भर देता है। उसे ऐसा आभास हुआ, मानो वह उपासक है और ये रमणियां उसकी उपास्य देवियां हैं। उनके पदरज को माथे पर लगाना ही मानो उसके जीवन की सार्थकता है। | रेणुका ने बालक को सकीना की गोद से लेकर अमर की ओर उठाते हुए कहा-यही तेरे बाबूजी हैं, बेटा, इनके पास जा।

बालक ने अमरकान्त का वह कैदियों को बाना देखा, तो चिल्लाकर रेणुका से चिपट गया फिर उसकी गोद में मुंह छिपाए कनखियों से उसे देखने लगा, मानो मेल तो करना चाहता है, पर भय तो यह है कि कहीं यह सिपाही उसे पकड़ न लें, क्योंकि इस भैस के आदमी को अपना बाबूजी समझने में उसके मन को संदेह हो रहा था। | सुखदा को बालक पर क्रोध आया। कितना डरपोक है, मानो इसे वह खा जाते। इच्छा हो रही थी कि यह भेड़ि टूल जाए, तो एकांत में अमर से मन की दो-चार बाते कर ले। फिर न जाने कब भेंट हो। अमर ने सुखदा की ओर ताकते हुए कहा-आप लोग इस मैदान में भी हमसे बाजी ले गईं। आप लोगों ने जिस काम का बीड़ा उठाया, उसे पूरा कर दिखाया। हम तो अभी जहा खड़े थे, वहीं खड़े हैं। सफलता के दर्शन होंगे भी या नहीं, कौन जाने? जो थोड़ा-बहुत आंदोलन यहां हुआ है, उसका गौरव भी मुन्नी बहन और सकीना बहन को है। इन दोनों बहनों के हृदय में देश के लिए जो अनुराग और कर्तव्य के लिए जो उत्सर्ग है, उसने हमारा मस्तक ऊंचा कर दिया। सुखदा ने जो कुछ किया, वह तो आप लोग मुझसे ज्यादा जानती हैं। आज लगभग तीन साल हुए, मैं विद्रोह करके घर से भागा था। मैं समझता था, इनके साथ मेरा जीवन नष्ट हो जाएगा; पर आज मैं इनके चरणों की धूल माथे पर लगाकर अपने को धन्य समझेंगा। मैं सभी माताओं और बहनों के सामने उनसे क्षमा मांगता हूं। सलीम ने भुस्कराकर कहा–यों जबानी नहीं, कान पकड़कर एक लाख मरतबा उठो-बैठो। अमर ने कनखियों से देखा और बोला--अब तुम मैजिस्ट्रेट नहीं हो भाई, भूलो मत। ऐसी सजाएं अब नहीं दे सकते ।। सलीम ने फिर शरारत की। सकीना से बोला-तुम चुपचाप क्यों खड़ी हो सकीना? तुम्हे भी तो इनसे कुछ कहना है, या मौका तलाश कर रही हो? फिर अमर से बोला- आप अपने कौल से फिर नहीं सकते जनाब ! जो वादे किए है, वह पूरे करने पड़ेंगे। सकीना का चेहरा मारे शर्म के लाल हो गया। जी चाहता था, जाकर सलीम के चुटको काट ले | उसके मुख पर आनंद और विजय का ऐमा रंग था, जो छिपाए न छिपता थी। मानो उसके मुख पर बहुत दिनों से जो कालिमा लगी हुई थी, वह आज धुल गई हो, और संसार के सामने अपनी निष्कलकता का ढिंढोरा पीटना चाहती हो। उसने पठानेन को ऐसी आंखों से देखा, जो तिरस्कार भरे शब्दों में कह रही थीं-अब तुम्हें मालूम हुआ, तुमने कितना घोर अनर्थ किया था ! अपनी आंखों में वह कभी इतनी ऊची न उठी थी। जीवन में उसे इतनी श्रद्धा और इतना सम्मान मिलेगा, इसकी तो उसने कभी कल्पना न की थी। | सुखदा के मुख पर भी कुछ कम गर्व और आनंद की झलक न थी। वहां जो कठोरता और गरिमा छाई रहती थी, उसकी जगह जैसे माधुर्य खिल उठा है। आज उसे कोई ऐसी विभूति