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50 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

छतरी ले ली और बोली-तुम तो बिल्कुल भींग गए। कहीं ठहर क्यों न गए।

रमानाथ-पानी का क्या ठिकाना, रात-भर बरसता रहे।

यह कहता हुआ रमा ऊपर चला गया। उसने समझा था, जालपा भी पीछे-पीछे आती होगी, पर वह नीचे बैठी अपने देवरों से बातें कर रही थी, मानो उसे गहनों की याद ही नहीं है। जैसे वह बिल्कुल भूल गई है कि रमा सरार्फ से आया है।

रमा ने कपड़े बदले और मन में झुंझलाता हुआ नीचे चला आया। उसी समय दयानाथ भोजन करने आ गए। सब लोग भोजन करने बैठ गए। जालपा ने जब्त तो किया था, पर इस उत्कंठा की दशा में आज उससे कुछ खाया न गया। जब वह ऊपर पहुंची, तो रमा चारपाई पर लेटा हुआ था। उसे देखते ही कौतुक से बोला-आज सरार्फ का जाना तो व्यर्थ हो गया। हार कहीं तैयार ही न था। बनाने को कह आया हूं।

जालपा की उत्साह से चमकती हुई मुख-छवि मलिन पड़ गई, बोली-वह तो पहले ही जानती थी। बनते-बनते पांच-छ: महीने तो लग हो जाएंगे।

रमानाथ–नहीं जी, बहुत जल्द बना देगा, कसम खा रहा था। जालपा-ऊह, जब चाहे दे।

उत्कंठा की चरम सीमा ही निराशा है। जालपा मुंह फेरकर लेटने जा रही थी, कि रमा ने जोर से कहकहा मारा। जालपा चौंक पड़ी। समझ गई, रमा ने शरारत की थी। मुस्कराती हुई बोली-तुम भी बड़े नटखट हो। क्या लाए?

रमानाथ-कैसा चकमा दिया?

जालपा-यह तो मरदों की आदत ही है, तुमने नई बात क्या की जालपा दोनों आभूषणों को देखकर निहाल हो गई। हृदय में आनंद की लहरें सी उठने लगीं। वह मनोभावों को छिपाना चाहती थी कि रमा उसे ओछी न समझे, लेकिन एक -एक अंग खिल जाता था। मुस्कराती हुई आंखें, दमकते हुए कपोल और खिले हुए अधर उसका भरम गंवाए देते थे। उसने हार गले में पहना, शीशफूल जूड़े में सजाया और हर्ष से उन्मत्त होकर बोली-तुम्हें आशीर्वाद देती हूं, ईश्वर तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूरी करें।

आज जालपा की अभिलाषा पूरी हुई, जो बचपन ही से उसकी कल्पनाओं का एक स्वप्न, उसकी आशाओं का क्रीड़ास्थल बनी हुई थी। आज उसकी वह साध पूरी हो गई। यदि मानकी यहां होती, तो वह सबसे पहले यह हार उसे दिखाती और कहती- तुम्हारा हार तुम्हें मुबारक हो ।

रमा पर घड़ों नशा चढ़ा हुआ था। आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ा। अपने जीवन में आज पहली बार उसे विजय का आनंद प्राप्त हुआ।

जालपा ने पूछा-जाकर अम्मांजी को दिखा आऊं?

रमा ने नम्रता से कहा-अम्मां को क्या दिखाने जाओगी। ऐसी कौन-सी बड़ी चीजें हैं।

जालपा-अब मैं तुम साल-भर तक और किसी चीज के लिए न कहूंगी। इसके रुपये देकर ही मेरे दिल का बोझ हल्का होगा।

रमा गर्व से बोला-रुपये की क्या चिंता । हैं ही कितने !

जालपा-जरा अम्मांजी को दिखा आऊं, देखें क्या कहती हैं।

रमानाथ-मगर यह न कहना, उधार लाए हैं।