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500 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

है। मैं तो फिर भी आदमी थी। रूठकर ऐसा भुला दिया मानो मैं मर गई। | अमर इस आक्षेप का कोई जवाब न दे सकने पर भी बोला-तुमने भी तो पत्र नहीं लिखा और मैं लिखती भी तो तुम जवाब देतीं? दिल से कहना। "तो तुम मुझे सबक देना चाहते थे?" अमरकान्त ने जल्दी से आक्षेप को दूर किया-नहीं, यह बात नहीं है सुखदा । हजारों बार इच्छा हुई कि तुम्हें पत्र लिखु, लेकिन... | सुखदा ने वाक्य को पूरा किया-लेकिन भय यही था कि शायद मैं तुम्हारे पत्रों को हाथ न लगाती। अगर नारी-हदय का तुम्हें यही ज्ञान है, तो मैं कहूंगी, तुमने उसे बिल्कुल नहीं समझी। अमर ने अपनी हार स्वीकार की--तो मैंने यह दावा कब किया था कि मैं नारी-हृदय का पारखी हूं? | वह यह दावा न करे; लेकिन सुखदा ने तो धारणा कर ली थी कि उसे यह दावा है। मीठे तिरस्कार के स्वर में बोली-पुरुष की बहादुरी तो इसमें नहीं है कि स्त्री को अपने पैरों पर गिराए। मैंने अगर तुम्हें पत्र न लिखा, तो इसका यह कारण था कि मैं समझती थी, तुमने मेरे साथ अन्याय किया है, मेरा अपमान किया है, लेकिन इन बातों को जाने दो। यह बताओ, जीत किसकी दुई, मेरी या तुम्हारी? अमर ने कहा-भेरी। "और मैं कहता हूं-मेरी।" “तुमने विद्रोह किया था, मैंने दमन से ठीक कर दिया।' नहीं, तुमने मेरी मांगें पूरी कर दीं। उसी वक्त सेठ धनीराम जेल के अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ अंदर दाखिल हुए। लोग कौतूहल से उन लोगों की ओर देखने लगे। सेठ इतने दुर्बल हो गए थे कि बड़ी मुश्किल से लकड़ी के सहारे चल रहे थे। पग-पग पर खांसते भी जाते थे। | अमर ने आगे बढ़कर सेठजी को प्रणाम किया। उन्हें देखते ही उसके मन में उनकी ओर से जो गुबार था, वह जैसे धुल गया। सेठजी ने उसे आशीर्वाद देकर कहा-मुझे यहां देखकर तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा बेटा, समझते होगे, बुड्ढा अभी तक जीता जा रहा है, इसे मौत क्यों नहीं आती? यह मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे संसार ने सदा अविश्वास की आंखों से देखा। मैंने जो कुछ किया, उस पर स्वार्थ का आक्षेप लगा। मुझमें भी कुछ सच्चाई है, कुछ मनुष्यता है, इसे किसी ने कभी स्वीकार नहीं किया। संसार की आंखों में मैं कोरी पशु हैं, इसलिए कि मैं समझता है, हरेक काय का समय होता है। कच्चा फल पाल में डाल देने से पकता नहीं। तभी पकता है; जब पकने के लायक हो जाता है। जब मैं अपने चारों ओर फैले हुए अंधकार को देखता हूं, तो मुझे सूर्योदय के सिवाय उसके हटाने का कोई दूसरा उपाय नहीं सूझता। किसी दफ्तर में जाओ, बिना रिश्वत के काम नहीं चल सकता। किसी घर में जाओ, वहां द्वेष का राज्य देखोगे। स्वार्थ, अज्ञान, आलस्य ने हमें जकड़ रखा है। उसे ईश्वर की इच्छा ही दूर कर सकती है। हम अपनी पुरानी संस्कृति को भूल बैठे हैं। यह आत्म-प्रधान संस्कृति थी। जब तक ईश्वर की दया न होगी,