पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/५०३

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कर्मभूमि:503
 

डॉ० शान्तिकुमार और स्वामी आत्मानन्द उतर पड़े। दौड़कर पिता के चरणों पर गिर पड़ा। पिता के प्रति आज उसके हृदय में असीम श्रद्धा थी। नैना मानो आंखों में आंसू भरे उससे कह रही थी- भैया, दादा को कभी दु:खी न करना, उनको रीति-नीति तुम्हें बुरी भी लगे, तो भी मुंह मत खोलना। वह उनके चरणों को आंसुओं से धो रहा था और सेठजी उसके ऊपर मोतियों की वर्षा कर रहे थे। सलीम भी पिता के गले में लिपट गया। हाफिजजी ने आशीर्वाद देकर कहा-खुदा का लाख-लाख शुक्र है कि तुम्हारी कुरवानियां मुफल हुई। कहां है सकीना, उसे भी देखकर कलेजा ठंडा कर लें। सकीना सिर झुकाए आई और उन्हें सलाम करके खड़ी हो गई। हाफिजजी ने उसे एक नजर देखकर समरकान्त से कहा- सलीम का इतिखाब तो बुरा नहीं मालूम होता। समरकान्त मुस्कराकर बोले--सूरत के साथ दहेज में देवियों के जौहर भी हैं। आनद के अवसर पर हम अपने दुःखों को भूल जाते हैं। हाजजी को सलीम के सिविल सर्विस से अलग होने का, ममरकान्त को नैना की मृत्यु का और सेठ धनीराम को पुत्र-शोक का रंज कुछ कम न था, पर इस समय सभी प्रसन्न थे। किसी संग्राम में विजय पाने के बाद योगए। मरने वाले के नाम को रोने नहीं बैठते। उस वक्त तो सभी उत्सव मनाते हैं, शादियाने बजते हैं, महफिलें जमती हैं, बधाइयां दी जाती हैं। रोने के लिए हम एकांत ढूंढते हैं, हसने के लिए अनेकांत है। सब प्रसन्न थे। केवल अमरकान्त मन मारे हुए ग्दास था। सब लोग स्टेशन पर पहुंचे, तो सुखदा ने उससे पूछा-तुम उदास क्यों हो? अमर ने जैसे जागकर कहा-मैं । उदास तो नहीं हैं। "उदासी भी कहीं छिपाने से छिपती है? अमर ने गंभीर स्वर में कहा-उदास नहीं है, केवल यह सोच रहा हूं कि मेरे हार्थों इतनी जान-माल की क्षति अकारण ही हुई। जिस नीति से अब काम लिया | क्या उसी नीति से तब काम न लिया जा सकता था? उस जिम्मेदारी का भार मुझे दबाए डालता है। | सुखदा ने शांत-कोमल स्वर में कहा-मैं तो समझती हूं, जो कुछ हुआ, अच्छा ही हुआ। जो काम अच्छी नीयत से किया जाता है, वह ईश्वरार्थ होता है। नतीजा कुछ भी हो। यज्ञ का अगर कुछ फल न मिले तो यज्ञ का पुण्य तो मिलता ही है, लेकिन मैं तो इस निर्णय को विजय समझती हूं, ऐमी विजय तो अभूतपूर्व है। हमें जो कुछ बलिदान करना पड़ा, वह उस जागृति के देखते हुए कुछ भी नहीं है, जो जनता में अकुरित हो गई है। क्या तुम समझते हो, इन बलिदानों के बिना यह जागृति आ सकती थी, और क्या इस जागृति के बिना यह समझौता हो सकता था? मुझे इसमें ईश्वर का हाथ साफ नजर आ रहा है। अमर ने श्रद्धा-भरी आंखों से सुखदा को देखा। इसे ऐसा जान पड़ा कि स्वयं ईश्वर इसके मन में बैठे बोल रहे हैं। वह क्षोभ और ग्लानि निष्ठा के रूप में प्रज्वलित हो उठी, जैसे कूड़े-करकट को ढेर आग की चिनगारी पड़ते ही तेज और प्रकाश की राशि बन जाता है। ऐसी प्रकाशमय शांति उसे कभी न मिली थी। उसने प्रेम से-गद्गद कंठ से कहा-सुखदा, तुम वास्तव में मेरे जीवन का दीपक हो। उसी वक्त लाला समरकान्त बालक को कंधे पर बिठाए हुए आकर बोले-अभी तो