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54 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


पड़ेगा ही। इतना बड़ा बोझ वह सिर पर नहीं ले सकता। दलाल से बोला-बड़े दाम हैं भाई, मैंने तो तीन-चार सौ के भीतर ही आंका था। दलाल का नाम चरनदास था। बोला-दाम में एक कौड़ी फरक पड़ जाय सरकार, तो मुंह न दिखाऊ। धनीराम की कोठी का तो माल है, आप चलकर पूछ लें। दमड़ी रुपये की दलाली अलबत्ता मेरी है, आपकी मरजी हो दीजिए या न दीजिए।

रमानाथ–तो भाई इन दामों की चीजें तो इस वक्त हमें नहीं लेनी हैं।

चरनदास-ऐसी बात न कहिए, बाबूजी । आपके लिए इतने रुपये कौन बड़ी बात है। दो महीने भी माल चल जाय तो उसके दूने हाथ आ जायेंगे। आपसे बढ़कर कौन शौकीन होगा। यह सब रईसों के ही पसंद की चीजें हैं। गंवार लोग इनकी कद्र क्या जानें।

रमानाथ-साढ़े आठ सौ बहुत होते हैं भई ।

चरनदास–रुपये का मुंह न देखिए बाबूजी, जब बहूजी पहनकर बैठेगी, तो एक निगाह में सारे रुपये तर जायंगे।

रमा को विश्वास था कि जालपा गहनों का यह मूल्य सुनकर आप ही बिचक जायेगी।

दलाल से और ज्यादा बातचीत न की। अंदर जाकर बड़े जोर से हंसा और बोला-आपने इस कंगन का क्या दाम समझा था, मांजी?

जागेश्वरी कोई जवाब देकर बेवकूफ न बनना चाहती थी-इन जड़ाऊ चीजों में नाप-तौल का तो कुछ हिसाब रहता नहीं जितने में तै हो जाय, वही ठीक है।

रमानाथ-अच्छा, तुम बताओ जालपा, इस कंगन का कितना दाम आंकती हो?

जालपा-छ: सौ से कम का नहीं।

रमा का सारा खेल बिगड़ गया। दाम का भय दिखाकर रमा ने जालपा को डरा देना चाहा था, मगर छ: और सात में बहुत थोड़ा ही अंतर था। और संभव है चरनदास इतने ही पर राजी हो जाय। कुछ झेंपकर बोला-कच्चे नगीने नहीं हैं।

जालपा–कुछ भी हो, छ: सौ से ज्यादा का नहीं।

रमानाथ-और रिंग का? ।

जालपा-अधिक से अधिक सौ रुपये।

रमानाथ-यहां भी चूकीं, डेढ़ सौ मांगता है।

जालपा-जट्टू है कोई, हमें इन दामों लेना ही नहीं।

रमा की चाल उल्टी पड़ी, जालपा को इन चीजों के मूल्य के विषय में बहुत धोखा न हुआ था। आखिर रमा की आर्थिक दशा तो उससे छिपी न थी, फिर वह सात सौ रुपये की चीजों के लिए मुंह खोले बैठी थी। रमा को क्या मालूम था कि जालपा कुछ और ही समझकर कंगन पर लहराई थी। अब तो गला छूटने का एक ही उपाय था और वह यह कि दलाल छ: सौ पर राजी न हो। बोला-वह साढे आठ से कौड़ी कम न लेगा।

जालपा-तो लौटा दो।

रमानाथ-मुझे तो लौटाते शर्म आती है। अम्मां, जरा आप ही दालान में चलकर कह दें, हमें सात सौ से ज्यादा नहीं देना है। देना होता तो दे दो, नहीं चले जाओ।

जागेश्वरी–हां रे, क्यों नहीं, उस दलाल से मैं बातें करने जाऊं ।

जालपा-तुम्हीं क्यों नहीं कह देते, इसमें तो कोई शर्म की बात नहीं।