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56 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


चीजें मुफ्त हाथ आ गई।

रमा ने विस्मय से पूछा-मुफ्त क्यों? रुपये न देने पड़ेंगे?

जालपा-रुपये तो अम्मांजी देंगी?

रमानाथ-क्या कुछ कहती थीं?

जालपा-उन्होंने मुझे भेंट दिए हैं, तो रुपये कौन देगा?

रमा ने उसके भोलेपन पर मुस्कराकर कहा-यही समझकर तुमने यह चींजे ले लीं ? अम्मा को देना होता तो उसी वक्त दे देतीं जब गहने चोरी गए थे। क्या उनके पास रुपये न थे?

जालपा असमंजस में पड़कर बोली-तो मुझे क्या मालूम था। अब भी तो लौटा सकते हो। कह देना, जिसके लिए लिया था, उसे पसंद नहीं आया।

यह कहकर उसने तुरंत कानों से रिंग निकाल लिए। कगन भी उतार डाले और दोनों चीजें केस में रखकर उसकी तरफ इस तरह बढ़ाई, जैसे कोई बिल्ली चूहे से खेल रही हो। वह चूहे को अपनी पकड़ से बाहर नहीं होने देती। उसे छोड़कर भी नहीं छोड़ती। हाथों को फैलाने का साहस नहीं होता था। क्या उसके हृदय की भी यही दशा न थी? उसके मुख पर हवाइयां उड़ रही थीं। क्यों वह रमा की और न देखकर भूमि की ओर देख रही थी ? क्यों सिर ऊपर न उठाती थी? किसी संकट से बच जाने में जो हार्दिक आनंद होता है, वह कहां था? उसकी दशा ठीक उस माता की-सी थी, जो अपने बालक को विदेश जाने की अनुमति दे रही हो। वही विवशता, वही कातरता, वहीं ममता इस समय जालपा के मुख़ पर उदय हो रही थी।

रमा उसके हाथ से केसों को ले सके, इतना कड़ा संयम उसमें न था। उसे तकाजे सहना, लज्जित होना, मुंह छिपाए फिरना, चिंता की आग में जलना, सब कुछ सहना मजूर था। ऐसा काम करना नामंजूर था जिससे जालपा का दिल टूट जाए, वह अपने को आभागिन समझने लगे। उसका सारा ज्ञान, सारी चेष्टा, मारा विवेक इस आघात का विरोध करने लगा। प्रेम और परिस्थितियों के संघर्ष में प्रेम ने विजय पाई।

उसने मुस्कराकर कहा-रहने दो, अब ले लिया है, तो क्या लौटाएं। अम्माजी भी हँसेगी।

जालपा ने बनावटी कांपते हुए कंठ में कहा-अपनी चादर देखकर ही पांव फेलाना चाहिए। एक नई विपत्ति मोल लेने की क्या जरूरत है।

रमा ने मानो जल में डूबते हुए कहा-ईश्वर मालिक हैं। और तुरंत नीचे चला गया।

हम क्षणिक मोह और संकोच में पड़कर अपने जीवन के सुख और शांति का कैसे होम कर देते हैं । अगर जालपा मोह के इस झोंके में अपने को स्थिर रख सकती, अगर रमा संकोच के आगे सिर न झुका देता, दोनों के हृदय में प्रेम का सच्चा प्रकाश होता, तो वे पथ-भ्रष्ट होकर सर्वनाश की ओर न जाते।

ग्यारह बज गए थे। दफ्तर के लिए देर हो रही थी, पर रमा इस तरह जा रहा था, जैसे कोई अपने प्रिय बंधु की दाह-क्रिया करके लौट रहा हो।