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गबन : 57
 


पंद्रह

जालपा अब वह एकांतवासिनी रमणी न थी, जो दिन-भर मुंह लपेटे उदास पड़ी रहती थी। उसे अब घर में बैठना अच्छा नहीं लगता था। अब तक तो वह मजबूर थी, कहीं आ-जा न सकती थी। अब ईश्वर की दया से उसके पास भी गहने हो गए थे। फिर वह क्यों मन मारे घर में पड़ी रहती। वस्त्राभूषण कोई मिठाई तो नहीं जिसका स्वाद एकांत में लिया जा सके। आभूषणों को संदूकचों में बंद करके रखने से क्या फायदा। मुहल्ले या बिरादरी में कहीं से बुलावा आता, तो वह सास के साथ अवश्य जाती। कुछ दिनों के बाद सास की जरूरत भी न रही। वह अकेली आने-जाने लगी। फिर कार्य प्रयोजन की कैद भी नहीं रही। उसके रूप-लावण्य, वस्त्र आभूषण और शील-विनय ने मुहल्ले की स्त्रियों में उसे जल्दी ही सम्मान के पद पर पहुंचा दिया। उसके बिना मंडली सुनी रहती थी। उसका कंठ-स्वर इतना कोमल था,भाषण इतना मधुर, छवि इतनी अनुपम कि वह मंडली की रानी मालूम होती थी। उसके आने से मुहल्ले के नारी जीवन में जान-सी पड़ गई। नित्य ही कहीं-न-कहीं जमा हो जाता। घंटे-दो घंटे गा-बजाकर या गपशप करके रमणियां दिल बहला लिया करतीं। कभी किसी के घर, कभी किसी के घर, फागुन में पंद्रह दिन बराबर गाना होता रहा। जालपा ने जैसा रूप पाया था, वैसा ही उदार हृदय भी पाया था। पान-पत्ते का खर्च प्राय: उसी के मत्थे पडता। कभी-कभी गायनें बुलाई जातीं, उनकी सेवा सत्कार का भार उसी पर था। कभी -कभी वह स्त्रियों के साथ गंगा-स्नान करने जाती, तांगे का किराया और गंगा-तट पर जलपान का ख़र्च भी उसके मत्थे जाता। इस तरह उसके दो तीन रुपये रोज उड़ जाते थे। रमा आदर्श पति था। जालपा अगर मांगती तो प्राण तक उसके चरणों पर रख देता। रुपये की हकीकत ही क्या थी? उसका मुंह जोहता रहता था। जालपा उससे इन जमघटों की राज चर्चा करती। उसकी स्त्री-समाज में कितना आदर-सम्मान है, यह देखकर वह फूला न समाता था।

एक दिन इस मंडली को सिनेमा देखने की धुन सवार हुई। वहां की बहार देखकर सब-की-सब मुग्ध हो गई। फिर तो आए दिन सिनेमा की सैर होने लगी। रमा को अब तक सिनेमा का शौक न था। शौक होता भी तो क्या करता। अब हाथ पैसे आने लगे, उस पर जालपा का आग्रह, फिर भला वह क्यों न जाता? सिनेमागृह में ऐसी कितनी ही रमणियां मिलतीं, जो मुंह खोले नि:संकोच हंसती-बोलती रहती थीं। उनकी आजादी गुप्तरूप से जालपा पर भी जादू डालती जाती थी। वह घर से बाहर निकलते ही मुंह खोल लेती; मगर संकोचवश परदेवाली स्त्रियों के ही स्थान पर बैठती। उसकी कितनी इच्छा होती कि रमा भी उसके साथ बैठता। आख़िर वह उन फैशनेबुल औरतों से किस बात में कम है? रूप-रंग में वह हेठी नहीं। सजधज में किसी से कम नहीं। बातचीत करने में कुशल। फिर वह क्यों परदेवालियों के साथ बैठे। रम्रा बहुत शिक्षित न होने पर भी देश और काल के प्रभाव से उदार था। पहले तो वह परदे का ऐसा अनन्य भक्त था, कि माता को कभी गंगा-स्नान कराने लिवा जाता, तो पंडों तक से न बोलने देता। कभी माता की हंसी मर्दाने में सुनाई देती, आकर बिगड़ता-तुमको जरा भी शर्म नहीं है अम्मां बाहर लोग बैठे हुए हैं, और तुम हंस रही हो। मां लज्जित हो जाती थीं। किंतु अवस्था के साथ रमा का यह लिहाज गायब होता जाता था। उस पर जालपा की रूप-छटा उसके साहस को और भी उत्तेजित करती थी। जालपा रूपहीन, काली-कलूटी, फूहड़ होती तो