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64 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


कुली की जरूरत, न मजूर की। उन्हीं मूसलचंद को रगेदूंगा।

रमानाथ-तब तो बड़ा मजा रहेगा। मैं तो बड़ी चिंता में पड़ा हुआ था।

रमेश-चिंता की कोई बात नहीं, उसी लौंडे को जोत दूंगा। कहूंगा, जगह चाहते हो तो कारगुजारी दिखाओ। फिर देखना, कैसी दौड़-धूप करती है।

रमानाथ-अभी दो-तीन महीने हुए आप अपने साले को कहीं नौकर रखा चुके हैं न?

रमेश-अजी, अभी छ: और बाकी हैं। पूरे सात जीव हैं। जरा बैठ जाओ, जरूरी चीजों का सूची बना ली जाए। आज ही से दौड़-धूप होगी, तब सब चीजें जुटा सकूगा। और कितने मेहमान होंगे?

रमानाथ-मेम साहब होंगी, और शायद वकील साहब भी आए।

रमेश—यह बहुत अच्छा किया। बहुत-से आदमी हो जाते, तो भभड़ हो जाता। हमें तो मेम साहब से काम है। ठलुओं की खुशामद करने से क्या फायदा?

दोनों आदमियों ने सूची तैयार की। रमेश बाबू ने दूसरे ही दिन से सामान जमा करना शुरू किया। उनकी पहुंच अच्छे-अच्छे घरों में थी। सजावट की अच्छी-अच्छी चीजें बटोर नाए, सारा घर जगमगा उठा। दयानाथ भी इन तैयारियों में शरीक थे। चीजों को करीने से सजाना उनका काम था। कौन गमला कहां रखा जाय, कौन तस्वीर कहीं लटकाई जाये, कौन-सा गलीचा कहां बिछाया जाय, इन प्रश्नों पर तीनों मनुष्यों में घंटों वाद-विवाद होता था। दफ्तर जाने के पहले और दफ्तर से आने के बाद तीनों इन्हीं कामों में जुट जाते थे। एक दिन इस बात पर बहस छिड़ गई कि कमरे में आईना कहां रखा जाय। दयानाथ कहते थे, इस कमरे में आईने की जरूरत नहीं। आईना पीछे वाले कमरे में रखना चाहिए। रमेश इसका विरोध कर रहे थे। रमा दुविधे में चुपचाप खड़ा था। न इनकी-मी कह सकता था, न उनकी-सी।

दयानाथ-मैने सैकड़ों अंगरेजों के ड्राइंग-रूम देखे हैं, कहीं आईना नहीं देखा। आईना श्रृंगार के कमरे में रहना चाहिए। यहां आईना रखना बेतुकी-सी बात है।

रमेश-मुझे सैकड़ों अंगरेजों के कमरों को देखने का अवसर तो नहीं मिला है, लेकिन दो-चार जरूर देखे हैं और उनमें आईना लगा हुआ देखा। फिर क्या यह जरूरी बात है कि इन जरा-जरा-सी बातों में भी हम अंगरेजों की नकल करें? हम अंगरेज नहीं, हिन्दुस्तानी हैं। हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में बड़े-बड़े आदमकद आईने रक्खे जाते हैं। यह तो आपने हमारे बिगड़े हुए बाबुओं की-सी बात कही, जो पहनावे में, कमरे की सजावट में, बोली में, चाय और शराब में, चीनी की प्यालयों में-गरज दिखावे की सभी बातों में तो अंगरजों का मुंह चिढ़ाते हैं; लेकिन जिन बातों ने अंगरेजों को अंगरेज बना दिया है, और जिनकी बदौलत वे दुनिया पर राज करते हैं, उनकी हवा तक नहीं छू जाती। क्या आपको भी बुढ़ापे में, अंगरेज बनने का शौक चर्राया है?

दयानाथ अंगरेजों की नकल को बहुत बुरा समझते थे। यह चाय-पार्टी भी उन्हें बुरी मालूम हो रही थी। अगर कुछ संतोष था, तो यही कि दो-चार बड़े आदमियों से परिचय हो जायेगा। उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी कोट नहीं पहना था। चाय पीते थे; मगर चीनी के सेट की कैद न थी। कटोरा-कटोरी, गिलास, लोटा-तसला किसी से भी उन्हें आपत्ति न थी, लेकिन इस वक्त उन्हें अपना पक्ष निभाने की पड़ी थी। बोले-हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में मेजें-कुर्सियां नहीं होतीं, फर्श होता है। आपने कुर्सी-मेज लगाकर इसे अंगरेजी ढंग पर तो बना दिया,