पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/६५

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गबन : 65
 


अब आईने के लिए हिन्दुस्तानियों की मिसाल दे रहे हैं। या तो हिन्दुस्तानी रखिए या अंगरेजी। यह क्या कि आधा तीतर आधा बटेर। कोट-पतलून पर चौगोशिया टोपी तो नहीं अच्छी मालूम होती !

रमेश बाबू ने समझा था कि दयानाथ की जबान बंद हो जायगी, लेकिन यह जवाब सुना तो चकराए। मैदान हाथ में जाता हुआ दिखाई दिया। बोले-तो आपने किसी अंगरेज के कमरे में आईना नहीं देखा? भला ऐसे दुस-पांच अंगरेजों के नाम तो बताइए? एक आपका वही किरंटा हेड क्लर्क है, उसके सिवा और किसी अंगरेज के कमरे में तो शायद अपने कदम भी ने रक्खा हो। उसी किरंटे को आपने अंगरेजी रुचि का आदर्श समझ लिया है खुब । मानता हूं।

दयानाथ-यह तो आपकी जबान है, उसे किरंटा, चमरशियन, पिलपिली जो चाहे कहें, लेकिन रंग को छोड़कर वह किसी बात में अंगरेजों से कम नहीं। और उसके पहले तो योरपियन था।

रमेश इसका कोई जवाब सोच ही रहे थे कि एक मोटरकार द्वार पर आकर रुकी, और रतनबाई उतरकर बरामदे में आई। तीनों आदमी चटपट बाहर निकल आए। रमा को इस वक्त रतन का आना बुरा मालूम हुआ। डर रहा था कि कहीं कमरे में भी न चली आए, नहीं तो सारी कलई खुल जाए। आगे बढ़कर हाथ मिलाता हुआ बोला-आइए, यह मेरे पिता हैं, और यह मेरे दोस्त रमेश बाबू हैं लेकिन उन दोनों जनों ने हाथ बढ़ाया और न जगह से हिले। सकपकाए-से खड़े रहे। रतन भी उनसे हाथ मिलाने की जरूरत न समझी। दूर ही में उनको नमस्कार करके रमा से बोलीं-नहीं, बैठूंगी नहीं। इस वक्त फुर्सत नहीं है। आपसे कुछ कहना था।

यह कहते हुए वह रमा के साथ मोटर तक आई और आहिस्ता से बोली-अपने सर्राफ से कहे तो दिया होगा?

रमा ने नि:संकोच होका कहा- जी हां, बना रहा है।

रतन-उम दिन मैंने कहा था, अभी रुपये न दे सकें, पर मैंने समझा शायद अपको कष्ट हो, इसलिए रुपये मंगवा लिए। आठ सौ चाहिए न?

जालपा ने कंगन के दाम आठ सौ बताए थे। रमा चाहता तो इतने रु•ले सकता था। पर रतन की सरलता और विश्वास ने उसके हाथ पकड़ लिए। ऐसी उदार, निष्कपट रमणी के साथ वह विश्वासघात न कर सका। वह व्यापारियों से दो-दो, चार-चार आने लेते जरा भी न झिझकता था। वह जानता था कि वे सब भी गाहकों को उल्टे छुरे से मुंड़ते हैं। ऐसों के साथ ऐसा व्यवहार करते हुए उसकी आत्मा को लेशमात्र भी संकोच न होता था, लेकिन इस देवी के साथ यह कपट व्यवहार करने के लिए किसी पुराने पपी की जरूरत थी। कुछ सकुचाता हुआ बोला-क्या जालपा ने कंगन के दाम आठ सौ बतलाए थे? उसे शायद याद न रही होगी। उसके कंगन छ: सौ के हैं। आप चाहें तो आठ सौ का बनवा दें।

रतन-नहीं, मुझे तो वहीं पसंद है। आप छ: सौ का ही बनवाइए।

उसने मोटर पर से अपनी थैली उठाकर सौ-२५ रुपये के छ: नोट निकाले।

रमा ने कहा-ऐसी जल्दी क्या थी, चीज तैयार हो जाती, तब हिसाब हो जाता।

रतन-मेरे पास रुपये खर्च हो जाते। इसलिए मैंने सोचा, आपके सिर पर लाद आऊं। मेरी आदत है कि जो काम करती हैं, जल्द-से-जल्द कर डालती हूं। विलंब से मुझे उलझन होती है।