पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/६७

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गबन : 67
 

रमेश ने मुस्कराकर कहा-अच्छा, यह किस्सा तो हो चुका, अब यह बताओ, उसने तुम्हें रुपये किसलिए दिए । मैं गिन रहा था, छ: नोट थे, शायद सौ-सौ के थे।

रमानाथ-ठगे लाया हूँ।

रमेश-मुझसे शरारत करोगे तो मार बैठूंगा। अगर जट ही लाए हो, तो भी मैं तुम्हारी पीठ ठोकूंगा, जीने रहो। खूब जटो, लेकिन आबरू पर आंच न आने पाए। किसी को कानोंकान खबर न हो। ईश्वर से तो मैं डरता नहीं। वह जो कुछ पूछेगा, उसका जवाब मैं दे लूंगा, मगर आदमी से डरता हूं। सच बताओ, किसलिए रुपये दिए ? कुछ दलाली मिलने वाली हो तो मुझे भी शरीक कर लेना।

रमानाथ-जड़ाऊ कगन बनवाने को कह गई हैं।

रमेश-तो चलो, मैं एक अच्छे सराफ से बनवा दें। यह झंझट तुमने बुरा मोल ले लिया। औरत का स्वभाव जानते नहीं। किसी पर विश्वास तो इन्हें आता ही नहीं। तुम चाहे दो-चार रुपये अपने पास ही से खर्च कर दो, पर वह यही समझेंगी कि मुझे लूट लिया। नेकनामी तो शायद ही मिले, हां, बदनामी तैयार खड़ी है।

रमानाथ-आप मूर्ख स्त्रियों की बातें कर रहे हैं। शिक्षित स्त्रियां ऐसी नहीं होतीं।

जरा देर बाद रमा अंदर जाकर जालपा से बोला-अभी तुम्हारी सहेली रतन आई थीं?

जालपा- सच! तब तो बड़ी गड़बड़ हुआ होगा। यहां कुछ तैयारी हो थी ही नहीं।

रमानाथ- कुशल यही हुई कि कमरे में नहीं आईं। कंगन के रुपये देने आई थीं। तुमने उनसे शायद आठ सौ रुपये बताए थे। मैंने छ सौ ले लिए।

जालपा ने झेंपते हए कहा-मैंने तो दिल्लगी की थी।

जालपा ने इस तरह अपनी सफाई तो दे दी, लेकिन बहुत देर तक उसके मन में उथल-पुथल होती रही। रमा ने अगर आठ सौ रुपये ले लिए होते, तो शायद उथल-पुथल न होती। वह अपनी सफलता पर खुश होती, पर रमा के विवेक ने उसकी धर्म-बुद्धि को जगा दिया था। वह पछता रही थी कि में व्यर्थ झूठ बोली। यह मुझे अपने मन में कितनी नीच समझ रहे होंगे। रतन भी मुझे कितनी बेईमान समझ रही होगी।

सोलह

चाय पार्टी में कोई विशेष बात नहीं हुई। रतन के साथ उसकी एक नाते को बहने और थी। वकील साहब न आए थे। दयानाथ ने उतनी देर के लिए घर से टल जाना ही उचित समझा। हां, रमेश बाबू बरामदे में बराबर खड़े रहे। रमा ने कई बार चाहा कि उन्हें भी पार्टी में शरीक कर लें, पर रमेश में इतना साहस न था।

जालपा ने दोनों मेहमानों को अपनी सास से मिलाया। ये युवतियां उन्हें कुछ ओछी जान पड़ीं। उनका सारे घर में दौड़ना, धम-धम करके कोठे पर जाना, छत पर इधर-उधर उचकना, खिलखिलाकर हंसना, उन्हें हुड़दंगपन मालूम होता था। उनकी नीति में बहू-बेटियों को भारी और लज्जाशील होना चाहिए था। आश्चर्य यह था कि आज जालपा भी उन्हीं में मिल गई थी। रतन ने आज कंगन की चर्चा तर्क न की।