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68 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

अभी तक रमा को पार्टी की तैयारियों से इतनी फुर्सत नहीं मिली थी कि गंगू की दुकान तक जाता। उसने समझा था, गंगू को छ: सौ रुपये दे दूंगा तो पिछले हिसाब में जमा हो जाएंगे। केवल ढाई सौ रुपये और रह जाएंगे। इस नये हिसाब में छ: सौ और मिलाकर फिर आठ सौ रह जाएंगे। इस तरह उसे अपनी साख जमाने का सुअवसर मिल जायेगा।

दूसरे दिन रमा खुश होता हुआ गंगू की दुकान पर पहुंचा और रोब से बोला-क्या रंग ढंग है महाराज, कोई नई चीज बनवाई है इधर?

रमा के टालमटोल से गंगू इतना विरक्त हो रहा था कि आज कुछ रुपये मिलने की आशा भी उसे प्रसन्न न कर सकी। शिकायत के ढंग से बोला-बाबू साहब, चीजें कितनी बनीं और कितनी बिकीं। आपने तो दुकान पर आना ही छोड़ दिया। इस तरह की दुकानदारों हम लोग नहीं करते। आठ महीने हुए, आपके यहां से एक पैसा भी नहीं मिला।

रमानाथ-भाई, खाली हाथ दुकान पर आते शर्म आती है। हम उन लोगों में नहीं हैं, जिनसे तकाजा करना पड़े। आज यह छ: सौ रुपये जमा कर लो, और एक अच्छा-सा कंगन तैयार कर दो। गंगू ने रुपये लेकर संदूक में रखे और बोला-बन जाएंगे। बाकी रूपये कब तक मिलेंगे?

रमानाथ-बहुत जल्द।

गंगू–हां बाबूजी, अब पिछला साफ कर दीजिए।

गंगू ने बहुत जल्द कंगन बनवाने का वचन दिया, लेकिन एक बार मैदा करके उसे मालूम हो गया कि यहां से जल्द रुपये वसूल होने वाले नहीं। नतीजा यह हुआ कि रमा रोज नकाजी करता और गंगू रोज हीले करके टालता। कभी कारीगर बीमार पड़ जाता, कभी अपनी स्त्री की दवा कराने ससुराल चला जाता, कभी उसके लड़के बीमार हो जाते। एक महीना गुजर गया और कंगन न बने। रतन के काजों के डर में रमा ने पार्क जाना छोड़ दिया. मगर उसने घर तो देख ही रखा था। इस एक महीने में कई बार तकाजा करने आई। आखिर जब सावन का महीना आ गया तो उसने एक दिन रमा से कहा-यह सुअर नहीं बनाकर देता, तो तुम किसी गैर कारीगर को क्यों नहीं देते?

रमानाथ-उस पाजी ने ऐसा धोखा दिया कि कुछ न पूछो, बस हो आज कल किया करता है। मैंने बड़ी भूल की जो उसे पेशगी रुपये दे दिये। अब उससे रुपये निकलना मुश्किल है।

रतन-आप मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए. में उसके आप से वसूल कर लूंगी। नावान अलग। ऐसे बेईमान आदमी को पुलिस में देना चाहिए।

जालपा ने कहा-हां और क्या। कभी सुनार देर करते हैं, मगर ऐसा नहीं, रुपये डकारे जायं और चीज के लिए महीनों दौड़ाएं।

रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा-आप दस दिन और सब्र करें, मैं आज ही उससे रूपये लेकर किसी दूसरे सर्राफ को दे दूंगा।

रतन-आप मुझे उस बदमाश की दुकान क्यों नहीं दिखा देते। मैं हंटर से बात करूं।

रमानाथ–कहता तो हूँ। दस दिन के अंदर आपको कंगन मिल जाएगें।

रतन-आप खुद ही ढील डाले हुए हैं। आप उसकी लल्लो-चप्पो की बातों में आ जाते होंगे। एक बार कोड़े पड़ जातं, तो मजाल थी कि यो होले -हवाले करता ।