पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
70 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


कहीं बाहर चला जाऊं। कुछ रुपये कमा लाऊं।

जालपा–मुझे भी लेते चलोगे न?

रमानाथ-तुम्हें परदेश में कहां लिए-लिए फिरूंगा?

जालपा-तो मैं यहां अकेली रह चुकी। एक मिनट तो रहूंगी नहीं। मगर जाओगे कहां?

रमानाथ-अभी कुछ निश्चय नहीं कर सका हूं।

जालपा-तो क्या सचमुच तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे ? मुझसे तो एक दिन भी न रहा जाय। मैं समझ गई, तुम मुझसे मुहब्बत नहीं करते। केवल मुंह-देखे की प्रीति करते हो।

रमानाथ तुम्हारे प्रेम-पाश ही ने मुझे यहां बांध रक्खा है। नहीं तो अब तक कभी चला गया होता।

जालपा–बातें बना रहे हो। अगर तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम होता, तो तुम कोई पर न रखते। तुम्हारे मन में जरूर कोई ऐसी बात है, जो तुम मुझसे छिपा रहे हो। कई दिनों से देख रही हैं, तम चिंता में डूबे रहते हो, मुझसे क्यों नहीं कहते। जहां विश्वास नहीं हैं, वहां प्रेम कैसे रह सकता है?

रमानाथ-यह तुम्हारा भ्रम है, जालपा मैंने तो तुमसे कभी परदा नहीं रखा।

जालपा-तो तुम मुझे सचमुच दिल से चाहते हो?

रमानाथ-यह क्या मुंह से कहूंगा जभी ।

जालपा–अच्छा, अब मैं एक प्रश्न करती हैं। संभले रहना। तुम मुझसे क्यों प्रेम करते हो । तुम्हें मेरी कसम है, सच बताना।

रमानाथ-यह तो तुमने बेढब प्रश्न किया। अगर मैं तुमसे यही प्रश्न पूछू तो तुम मुझे क्या जवाब दोगी?

जालपा-मैं तो जानती हूँ।

रमानाथ-बताओ।

जालपा-तुम बतला दो, मैं भी बतला दूं।

रमानाथ–मैं तो जानता ही नहीं। केवल इतना ही जानता हूं कि तुम मेरे रोम-रोम में रम रही हो।

जालपा-सोचकर बतलाओ। मैं आदर्श-पत्नी नहीं हूं, इसे मैं खूब जानती हूं। पति-सेवा अब तक मैंने नाम को भी नहीं की। ईश्वर की दया से तुम्हारे लिए अब तक कष्ट सहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। घर-गृहस्थी का कोई काम मुझे नहीं आता। जो कुछ सीखा, यहीं सीखा। फिर तुम्हें मुझसे क्यों प्रेम है? बातचीत में निपुण नहीं। रूप-रंग भी ऐसा आकर्षक नहीं। जानते हो, मैं तुमसे क्यों प्रश्न कर रही हूँ?

रमानाथ-क्या जाने भाई, मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है।

जालपा-मैं इसलिए पूछ रही हूं कि तुम्हारे प्रेम को स्थायी बना सकूं।

रमानाथ-मैं कुछ नहीं जानता जालपा, ईमान से कहता हूं। तुममें कोई कमी है, कोई दोष है, यह बात आज तक मेरे ध्यान में नहीं आई, लेकिन तुमने मुझमें कौन-सी बात देखी? न मेरे पास धन है, न विद्या, न रूप है। बताओ?

जालपा-बता दें? मैं तुम्हारी सज्जनता पर मोहित हूं। अब तुमसे क्या छिपाऊं, जब मैं यहां आई तो यद्यपि तुम्हें अपना पति समझती थी, लेकिन कोई बात कहते या करते समय मुझे