पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/७१

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गबन : 71
 


चिंता होती थी कि तुम उसे पसंद करोगे या नहीं। यदि तुम्हारे बदले मेरा विवाह किसी दूसरे पुरुष से हुआ होता तो उसके साथ भी मेरा यही व्यवहार होता। यह पत्नी और पुरुष का रिवाजी नाता है, पर अब मैं तुम्हें गोपियों के कृष्ण से भी न बदलूंगी। लेकिन तुम्हारे दिल में अब भी चोर है। तुम अब भी मुझसे किसी-किसी बात में परदा रखते हो।

रमानाथ-यह तुम्हारी केवल शंका है, जालपा ! मैं दोस्तों से भी कोई दुराव नहीं करता। फिर तुम तो मेरी हृदयेश्वरी हो।

जालपा–मेरी तरफ देखकर बोलो, आंखें नीची करना मर्दों का काम नहीं है।

रमा के जी में एक बार फिर आया कि अपनी कठिनाइयों की कथा कह सुनाऊं, लेकिन मिथ्या गौरव ने फिर उसकी जबान बंद कर दी।

जालपा जब उससे पूछती, सराफों को रुपये देते जाते हो या नहीं, तो वह बराबर कहता, हां कुछ-न-कुछ हर महीने देता जाता हूं, पर आज रमा की दुर्बलता ने जालपा के मन में एक संदेह पैदा कर दिया था। वह उसी संदेह को मिटाना चाहती थी। जरा देर बाद उसने पूछा–सराफों के तो अभी सब रुपये अदा न हुए होंगे?

रमानाथ-अब थोड़े ही बाकी हैं।

जालपा-कितने बाकी होंगे, कुछ हिसाब-किताब लिखते हो?

रमानाथ-लिखता क्यों नहीं। सात सौ से कुछ कम ही होंगे।

जालपा-तब तो पूरी गठरी है, तुमने कहीं रतन के रुपये तो नहीं दे दिए?

रमा दिल में कांप रहा था, कहीं जालपा यह प्रश्न न कर बैठे। आखिर उसने यह प्रश्न पूछ ही लिया। उस वक्त भी यदि रमा ने साहस करके सच्ची बात स्वीकार कर ली होती तो शायद उसके संकटों का अंत हो जाता। जालपा एक मिनट तक अवश्य सन्नाटे में आ जातीं। संभव है, क्रोध और निराशा के आवेश में दो-चार कटु शब्द मुंह से निकालती, लेकिन फिर शांत हो जाती। दोनों मिलकर कोई-न-कोई युक्ति सोच निकालते। जालपा यदि रतन से यह रहस्य कह सुनाती, तो रतन अवश्य मान जाती, पर हाय रे आत्मगौरव |रमा ने यह बात सुनकर ऐसा मुंह बना लिया मान जालपा ने उस पर कोई निष्ठुर प्रहार किया हो। बोला-रतन के रुपये क्यों देता। आज चाहूं, तो दो-चार हजार का माल ला सकता हूं। कारीगरों की आदत देर करने की होती ही है। सुनार की खटाई मशहूर है। बस और कोई बात नहीं। दस दिन में या तो चीज ही लाऊंगा या रुपये वापस कर दूंगा, मगर यह शंका तुम्हें क्यों हुई? पराई रकम भला मैं अपने खर्च में कैसे लाता।

जालपा-कुछ नहीं, मैंने यों ही पूछा था।

जालपा को थोड़ी देर में नींद आ गई, पर रमा फिर उसी उधेड़बुन में पड़ा। कहां से रुपये लाए। अगर वह रमेश बाबू से साफ-साफ कह दे तो वह किसी महाजन से रुपये दिला देंगे, लेकिन नहीं, वह उनसे किसी तरह न कह सकेगा। उसमें इतना साहस न था।

उसने प्रात:काल नाश्ता करके दफ्तर की राह ली। यद वहां कुछ प्रबंध हो जाए | कौन प्रबंध करेगा, इसका उसे ध्यान न था। जैसे रोगी वैद्य के पास जाकर संतुष्ट हो जाता है पर यह नहीं जानता, मैं अच्छा हूंगा या नहीं। यही दशी इस समय रमा की थी। दफ्तर में चपरासी के सिवा और कोई न था। रमा रजिस्टर खोलकर अंकों की जांच करने लगा। कई दिनों से मीजान नहीं दिया गया था; पर बड़े बाबू के हस्ताक्षर मौजूद थे। अब मीजान दिया, तो ढाई हजार