पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/७३

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गबन : 73
 


भी न खाया था। जालपा ने कई बार कहा, चलो कहीं घूम आवें, तो उसे भी उसने बातों में ही टाला। बस, कल का दिन और था। कल आकर रतन कंगन मांगेगी तो उसे वह क्या जवाब देगा। दफ्तर से आकर वह इसी सोच में बैठा हुआ था। क्या वह एक महीना भर के लिए और न माने जायगी। इतने दिन वह और न बोलती तो शायद वह उससे उऋण हो जाता। उसे विश्वास था कि मैं उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करके राजी कर लूंगा। अगर उसने जिद की तो मैं उससे कह दूंगा, सराफ रुपये नहीं लौटाता। सावन के दिन थे, अंधेरा हो चला था, रमा सोच रहा था, रमेश बाबू के पास चलकर दोचार बाजियां खेल आऊं, मगर बादलों को देख-देख रुक जाता था। इतने में रतन आ पहुंची। वह प्रसन्न न थी। उसकी मुद्रा कठोर हो रही थी। आज वह लड़ने के लिए घर से तैयार होकर आई है और मुरव्वत और मुलाहजे की कल्पना को भी कोसों दूर रखना चाहती है।

जालपा ने कहा—तुम खूब आई। आज मैं भी जरा तुम्हारे साथ घूम आऊंगी। इन्हें काम के बोझ से आजकल सिर उठाने की फुर्सत नहीं हैं। | रतन ने निष्ठुरता से कहा-मुझे आज तो बहुत जल्द घर लौट जाना है। बाबूजी को कल की याद दिलाने आई हूँ।

रमा उसका लटका हुआ मुंह देखकर ही मन में सहम रहा था। किसी तरह उसे प्रसन्न काना चाहता था। बड़ी तत्परता से बोला-जी हां, खूब याद है, अभी सराफ की दुकान से चला आ रहा हूं। रोज सुबह-शाम घंटे भर हाजिरी देता हूँ, मगर इन चीजों में समय बहुत लगता है। दाम तो कारीगरी के हैं। मानियत देखिए तो कुछ नहीं। दो आदमी लगे हुए हैं, पर शायद अभी एक महीने से कम में चीज तैयार न हो, पर होगी लाजवाब! जी खुश हो जायगा।

पर रतन जरी भी न पिघली। तिनककर बोली-अच्छा | अभी महीना भर और लगेगा। ऐसी कारीगरी है कि तीन महीने में पूरी न हुई ! आप उससे कह दीजिएगा मेरे रुपये वापस कर दे। आशा के कंगन देवियां पहनती होंगी, मेरे लिए जरूरत नहीं ।

रमानाथ-एक महीना न लगेगा, में जल्दी ही बनवा दूंगा। एक महीना तो मैंने अंदाज कह दिया था। अब थोड़ी ही कसर रह गई हैं। कई दिन तो नगीने तला करने में लग गए।

रतन–मुझे कंगन पहनना ही नहीं है, भाई । आप मेरे रुपये लौटा दीजिए, बस। सुनार मैंने भी बहुत देखे हैं। आपकी दया से इस वक्त भी तीन जोड़े कगन मेरे पास होगे, पर ऐसी धांधली कहीं नहीं देखी।। धांधली के शब्द पर रमा तिलमिला उठा–धांधली नहीं, मेरी हिमाकत कहिए। मुझे क्या जरूरत थी कि अपनी जान संकट में डालता। मैंने तो पेशगी रुपये इसलिए दे दिए कि सुनार खुश होकर जल्दी से बना देगा। अब आप रुपये मांग रही हैं, सराफ रुपये नहीं लौटा सकता।

रतन ने तीव्र नेत्रों से देखकर कहा-क्यों, रुपये क्यों न लौटाएगा?

रमानाथ-इसलिए कि जो चीज आपके लिए बनाई है, उसे वह कहां बेचता फिरेगा। संभव है, साल-छ: महीने में बिक सके। सबकी पसंद एक-सी तो नहीं होती।

रतन ने त्योरियां चढ़ाकर कहा-मैं कुछ नहीं जानतीं, उसने देर की है, उसका दंड भोगे। मुझे कल या तो कंगन ला दीजिए या रुपये। आपसे यदि सराफ से दोस्ती है, आप मुलाहिजे और मुरव्वत के सबब से कुछ न कह सकते हों, तो मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए। नहीं आपको शर्म आती हो तो उसका नाम बता दीजिए, मैं पता लगा लूंगी। वाह, अच्छी