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80 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

रमा झूले पर खड़ा होकर पेंग मारने लगा, लेकिन उसके पांव कांप रहे थे, और दिल बैठा जाता था। जब झूला ऊपर से गिरता था, तो उसे ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई तरल वस्तु उसके वक्ष में चुभती चली जा रही है-और रतन लड़कियों के साथ गा रही थी-

        कदम की डरिया झूला पड़ गयो री,
             राधा रानी झूलन आई।

एक क्षण के बाद रतन ने कहा-जरा और बढ़ाइए साहब, आपसे तो झूला बढ़ता ही नहीं।

रमा ने लज्जित होकर और जोर लगाया, पर झूला न बढ़ा। रमा के सिर में चक्कर आने लगा।

रतन- आपको पेंग मारना नहीं आता, कभी झूला नहीं झूले?

रमा ने झिझकते हुए कहा- हां, इधर तो वर्षों से नहीं बैठा।

रतन-तो आप इन बच्चों को संभालकर बैठिए, मैं आपको झुलाऊंगी। अगर उस डाल से न छू ले तो कहिएगी । रमा के प्राण सूख गए। बोला-आज तो बहुत देर हो गई है, फिर कभी आऊंगा।

रतने-अजी अभी क्या देर हो गई है, दस भी नहीं बजे घबड़ाइए नहीं, अभी बहुत रात पड़ी है। खूब झूलकर जाइएगा। कल जालपा को लाइएगा, हम दोनों झूलेंगे।

रमा झूले पर से उतर आया तो उसका चेहरा सहमा हुआ था। मालूम होता था, अब गिरा, अब गिरा। वह लड़खड़ाता हुआ साइकिल की ओर चला और उस पर बैठकर तुरंत घर भागा। कुछ दूर तक उसे कुछ होश न रहा। पांव आप ही अपि पैडल घुमाते जाते थे। आधी दूर जाने के बाद उसे होश आया। उसने साइकिल घुमा, दो कुछ दूर चला, फिर उतरकर सोचने लगा-आज संकोच में पड़कर कैसी बाजी हाथ से खोई, वहां से चुपचाप अपना सा-मुंह लिए लौट आया क्यों उसके मुंह से आवाज नहीं निकली! रतन कुछ हौवा तो थी नहीं, जो उसे खा जाती। सहसा उसे याद आयी थैली में आठ सौ रुपये थे, जालपा ने झझलाकर थैली की थैली उसके हवाले कर दी। शायद, उसने भी गिना नहीं, नहीं जरूर कहती। कहीं ऐसा न हो, थैली किसी को दे दे, या और रुपयों में मिला दे, तो गजब ही हो जाए। कहीं का न रहू। क्यों न इसी वक्त चलकर बंशी रुपये मांग लाऊं, लेकिन देर बहत हो गई है, सबेरे फिर आना पड़ेगा। मगर यह दो सौ रुपये मिल भी गए, तब भी तो पांच सौ रुपयों की कमी रहेगी। उसका क्या प्रबंध होगा? ईश्वर ही बेड़ा पार लगाएं तो लग सकता है। सबेरे कुछ प्रबंध न हुआ, तो क्या होगा | यह सोचकर वह कांप उठा।। जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं, जब निराशा में भी हमें आशा होती है। रमा ने सोचा, एक बार फिर गंगू के पास चलें, शायद दुकान पर मिल जाय, उसके हाथ-पांव जोडू संभव है, कुछ दया आ जाय। वह सराफ जा पहुंचा, मगर पंगू की दुकान बंद थी। वह लौटा ही था कि चरनदास आता हुआ दिखाई दिया। रमा को देखते ही बोला—बापूजी, आपने तो इधर का रास्ता ही छोड़ दिया। कहिए रुपये कब तक मिलेंगे?

रमा ने विनम्र भाव से कहा-अब बहुत जल्द मिलेंगे भाई, देर नहीं हैं। देखो गंगू के रुपये चुकाए हैं, अब की तुम्हारी बारी है।

चरनदास-वह सब किस्सा मालूम है, गंगू ने होशियारी से अपने रुपये न ले लिए होते,