पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/८३

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गबन : 83
 


रमा ने लज्जित होकर कहा-हां जी, न जाने क्या देख रहा था कुछ याद नहीं।

जालपा ने पूछा-अम्मांजी को क्यों धमका रहे थे। सच बताओ, क्या देखते थे?

रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा-कुछ याद नहीं आता, यों ही बकने लगा हूंगा।

जालपा-अच्छा तो करवट सोना। चित सोने से आदमी बकने लगता है।

रमा करवट पौढ़ गया; पर ऐसा जान पड़ता था, मानो चिंता और शंका दोनों आंखों में बैठी हुई निद्रा के आक्रमण से उनकी रक्षा कर रही हैं। जागते हुए दो बज गए। सहसा जालपा उठ बैठी, और सुराही से पानी उंडेलती हुई बोली-बड़ी प्यास लगी थी, क्या तुम अभी तक जाग ही रहे हो?

रमा-हां जी, नींद उचट गई है। मैं सोच रहा था, तुम्हारे पास दो सौ रुपये कहां से आ गए? मुझे इसका आश्चर्य है।

जालपा-ये रुपये मैं मायके से लाई थी, कुछ बिदाई में मिले थे, कुछ पहले से रखे थे।

रमानाथ-तब तो तुम रुपये जमा करने में बड़ी कुशल हो। यहां क्यों नहीं कुछ जमा किया? जालपा ने मुस्कराकर कहा-तुम्हें पाकर अब रुपये की परवाह नहीं रही।

रमानाथ-अपने भाग्य को कोसती होगी।

जालपा-भाग्य को क्यों कोसू, भाग्य को वह औरतें रोएं, जिनका पति निखट्टू हो, शराबी हो, दुराचारी हो, रोगी हो, तानों से स्त्री को छेदता रहे, बात-बात पर बिगड़े। पुरुष मन का हो तो स्त्री उसके साथ उपवास करके भी प्रसन्न रहेगी।

रमा ने विनोद भाव से कहा-तो मैं तुम्हारे मन का हूं।

जालपा ने प्रेम-पूर्ण गर्व से कहा-मेरी जो आशा थी, उससे तुम कहीं बढ़कर निकले। मेरी तीन सहेलियां हैं। एक का भी पति ऐसा नहीं। एक एम० ए० हैं पर सदा रोगी। दूसरी विद्वान भी है और धनी भी, पर वेश्यागामी। तीसरा घरघुस्सू है और बिल्कुल निखट्टू।

रमा का हृदय गद्गद हो उठा। ऐसी प्रेम की मूर्ति और दया की देवी के साथ उसने कितना बड़ा विश्वासघात किया। इतना दुराव रखने पर भी जब इसे मुझसे इतना प्रेम है, तो मैं अगर उससे निष्कपट होकर रहता, तो मेरा जीवन कितना आनंदमय होता !

उन्नीस

प्रात:काल रमा ने रतन के पास अपना आदमी भेजा। खत में लिखा, मुझे बड़ा खेद है कि कल जालपा ने आपके साथ ऐसा व्यवहार किया, जो उसे न करना चाहिए था। मेरा विचार यह कदापि न था कि रुपये आपको लौटा दें, मैंने सराफ को ताकीद करने के लिए उससे रुपये लिए थे। कंगन दो-चार रोज में अवश्य मिल जाएंगे। आप रुपये भेज दें। उसी थैली में दो सौ रुपये मेरे भी थे। वह भी भेजिएगा। अपने सम्मान की रक्षा करते हुए जितनी विनम्रता उससे हो सकती थी, उसमें कोई कसर नहीं रक्खी। जब तक आदमी लौटकर न आया, वह बड़ी व्यग्रता से उसकी राह देखता रहा। कभी सोचती, कहीं बहाना न कर दे. या घर पर मिले ही नहीं, या दो-