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84 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


चार दिन के बाद देने का वादा करे। सारा दारोमदार रतन के रुपये पर था। अगर रतन ने साफ जवाब दे दिया, तो फिर सर्वनाश ! उसकी कल्पना से ही रमा के प्राण सूखे जा रहे थे। आखिर नौ बजे आदमी लौटा। रतन ने दो सौ रुपये तो दिए थे; मगर ख़त का कोई जवाब न दिया था।

रमा ने निराश आंखों से आकाश की ओर देखा। सोचने लगा, रतन ने खत का जवाब क्या नहीं दिया? मामूली शिष्टाचार भी नहीं जानती? कितनी मक्कार औरत है। रात को ऐसा मालूम होता था कि साधुता और सजनता की प्रतिमा ही है, पर दिल में यह गुबार भरा हुआ था ! शेष रुपयों की चिंता में रमा को नहाने-खाने की भी सुध न रही।। कहार अंदर गया, तो जालपा ने पूछा-तुम्हें कुछ काम-धंधे की भी खबर है कि मटरगश्ती ही करते रहोगे । दस बज रहे हैं, और अभी तक तरकारी-भाजी का कहीं पता नहीं? कहार ने त्योरियां बदलकर कहा-तो का चार हाथ-गोड़ कर लेई । कामें से तो वो रहिन। बाबू मेम साहब के तीर रुपैया लेबे का भेजिन रहा।

जालपा-कौन मेम साहब?

कहार-जौन मोटर पर चढ़कर आवत हैं।

जालपा-तों लाए रुपये?

कहार-लाए काहे नाहीं। पिरथी के छोर पर तो रहत हैं, दौरत-दौरत गोड़ पिराय लाग।

जालपा-अच्छा चटपट जाकर तरकारी लाओ।

कहार तो उधर गया, रमा रुपये लिए हुए अंदर पहुंचा तो जालपा ने कहा-तुमने अपने रुपये रतन के पास से मंगवा लिए न? अब तो मुझसे न लोगे?

रमा ने उदासीन भाव से कहा-मत दो ।

जालपा-मैंने कह दिया था रुपया दे दूंगी। तुम्हें इतनी जल्द मांगने की क्यों सूझी? समझी होगी, इन्हें मेरा इतना विश्वास भी नहीं।

रमा ने हताश होकर कहा-मैंने रुपये नहीं मांगे थे। केवल इतना लिख दिया था कि थैली में दो सौ रुपये ज्यादे हैं। उसने आप ही आप भेज दिए । जालपा ने हंसकर कहा-मेरे रुपये बड़े भाग्यवान हैं, दिखाऊं? चुन-चुनकर नए रुपये रखे हैं। सब इसी साल के हैं, चमाचम ! देखो तो आंखें ठंडी हो जाएं। इतने में किसी ने नीचे से आवाज दी–बाबूजी, सेठ ने रुपये के लिए भेजा है।

दयानाथ स्नान करने अंदर आ रहे थे, सेठ के प्यादे को देखकर पूछा-कौन सेठ, कैसे रुपये? मेरे यहां किसी के रुपये नहीं आते । प्यादा-छोटे बाबू ने कुछ माल लिया था। साल भर हो गए, अभी तक एक पैसा नहीं दिया। सेठजी ने कहा है, बात बिगड़ने पर रुपये दिए तो क्या दिए। आज कुछ जरूर दिलवा दीजिए।

दयानाथ ने रमा को पुकारा और बोले-देखो, किस सेठ का आदमी आया है। उसका कुछ हिसाब बाकी है, साफ क्यों नहीं कर देते? कितना बाकी है इसका?

रमा कुछ जवाब न देने पाया था कि प्यादा बोल उठा-पूरे सात सौ हैं, बाबूजी ।

दयानाथ की आंखें फैलकर मस्तक तक पहुंच गईं–सात सौ । क्यों जी, यह तो सात सौ कहता है?

रमा ने टालने के इरादे से कहा-मुझे ठीक से मालूम नहीं।