पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/८७

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गबन : 87
 


जाता, पर उसे सामने बैठे देखकर वह संकोच में डूब गया।

जब तांगा गवर्नमेंट हाउस के पास पहुंचा, तो रमा ने चौंककर कहा- चुंगी के दफ्तर चलो। तांगे वाले ने घोड़ा फेर दिया। ग्यारह बजते-बजते रमा दफ्तर पहुंचा। उसका चेहरा उतरा हुआ था। छाती धड़क रही थी। बड़े बाबू ने जरूर पूछा होगा। जाते ही बुलाएंगे। दफ्तर में जरा भी रियायत नहीं करते। तांगे से उतरते ही उसने पहले अपने कमरे की तरफ निगाह डाली। देखा, कई आदमी खड़े उसकी राह देख रहे हैं। वह उधर न जाकर रमेश बाबू के कमरे की ओर गया।

रमेश बाबू ने पूछा- तुम अब तक कहां थे जी, खजांची साहब तुम्हें खोजते फिरते हैं? चपरासी मिला था?

रमा ने अटकते हुए कहा-मैं घर पर न था। जरा वकील साहब की तरफ चला गया था। एक बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं।

रमेश-कैसी मुसीबत, घर पर तो कुशल है।

रमानाथ जी हां, घर पर तो कुशल है। कल शाम को यहां काम बहुत था, मैं उसमें ऐसा फंसा कि वक्त की कुछ खबर हो न रही। जब काम खत्म करके उठा, तो खजांची साहब चले गए थे। मेरे पास आमदनी के आठ सौ रुपये थे। सोचने लगा इसे कहां रक्खू। मेरे कमरे में कोई संदूक है न। यही निश्चय किया कि साथ लेता जाऊं। पांच सौ रुपये नकद थे, वह तो मैंने थैली में रक्खे तीन सौ रुपये के नोट जेब में रख लिए और घर चला। चौक में एक-दो चीजें लेनी थीं। उधर से होता हुआ घर पहुंचा तो नोट गायब थे।

रमेश बाबू ने आंखें फाड़कर कहा-तीन सौ के नोट गायब हो गए?

रमानाथ-जी हां, कोट के ऊपर की जेब में थे। किसी ने निकाल लिए?

रमेश-और तुमको मारकर थैली नहीं छीन ली?

रमानाथ-क्या बताऊं बाबूजी, तब से चित्त की जो दशा हो रही है, वह बयान नहीं कर सकता। तब से अब तक इसी फिक्र में दौड़ रहा हूं। कोई बंदोबस्त न हो सका।

रमेश-अपने पिता से तो कहा ही न होगा?

रमानाथ–उनका स्वभाव तो आप जानते हैं। रुपये तो न देते,उल्टा डांट सुनाते।

रमेश–तो फिर क्या फिक्र करोगे?

रमानाथ-आज शाम तक कोई न कोई फिक्र करूंगा ही।

रमेश ने कठोर भाव धारण करके कहा-तो फिर करो न | इतनी लापरवाही तुमसे हुई कैसे ! यह मेरी समझ में नहीं आता। मेरी जेब से तो आज तक एक पैसा न गिरा। आंखें बंद करके रास्ता चलते हो या नशे में थे? मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं आता। सच-सच बतला दो, कहीं अनाप-शनाप तो नहीं खर्च कर डाले? उस दिन तुमने मुझसे क्यों रुपये मांगे थे?

रमा का चेहरा पीला पड़ गया। कहीं कलई तो न खुल जाएगी। बात बनाकर बोला-क्या सरकारी रुपया खर्च कर डालूंगा? उस दिन तो आपसे रुपये इसलिए मांगे थे कि बाबूजी को एक जरूरत आ पड़ी थी। घर में रुपये न थे। आपका खत मैंने उन्हें सुना दिया था। बहुत हंसे; दूसरा इंतजाम कर लिया। इन नोटों के गायब होने का तो मुझे खुद ही आश्चर्य है।

रमेश-तुम्हें अपने पिताजी से मांगते संकोच होता हो, तो मैं खत लिखकर मंगवा लें।

रमा ने कानों पर हाथ रखकर कहा-नहीं बाबूजी, ईश्वर के लिए ऐसा न कीजिएगा।