पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/९३

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गबन : 93
 


को पकड़ पाऊं तो बिना काफी रुपये लिए न मानूं। मैं सोने की दीवार नहीं खड़ी करना चाहता, न राकफेलर और कारनेगी बनने की मेरी इच्छा है। मैं केवल इतना धन चाहता हूं कि जरूरत की मामूली चीजों के लिए तरसना न पड़े। बस कोई देवता मुझे पांच लाख दे दे, तो मैं फिर उससे कुछ न मांगूंगा। हमारे ही गरीब मुल्क में ऐसे कितने ही रईस, सेठ, ताल्लुकेदार हैं, जो पांच लाख एक साल में खर्च करते हैं, बल्कि कितनों ही का तो माहवार खर्च पांच लाख होगा। मैं तो इसमें सात जीवन काटने को तैयार हूं, मगर मुझे कोई इतना भी नहीं देता। तुम क्या मांगतीं? अच्छे-अच्छे गहने !'

जालपा ने त्योरियां चढाकर कहा-क्यों चिढ़ाते हो मुझे ! क्या मैं गहनों पर और स्त्रियों से ज्यादा जान देती हूं? मैंने तो तुमसे कभी आग्रह नहीं किया? तुम्हें जरूरत हो, आज इन्हें उठी ले जाओ, मैं खुशी से दे दूंगी।

रमा ने मुस्कराकर कहा-तो फिर बतलातीं क्यों नहीं?

जालपा-मैं यही मांगती कि मेरा स्वामी सदा मुझसे प्रेम करता रहे। उनका मन कमी मुझसे न फिरे।

रमा ने हंसकर कहा-क्या तुम्हें इसकी भी शंका है?

'तुम देवता भी होते तो शंका होती, तुम तो आदमी हो। मुझे तो ऐसी कोई स्त्री न मिली, जिसने अपने पति की निष्ठुरता का दुखड़ा न रोया हो। साल-दो साल तो वह खूब प्रेम करते हैं, फिर न जाने क्यों उन्हें स्त्री से अरुचि-सी हो जाती है। मन चंचल होने लगता है। औरत के लिए इससे बड़ी विपत्ति नहीं। उस विपत्ति से बचने के सिवा मैं और क्या वरदान मांगती?'-यह कहते हुए जालपा ने पति के गले में बांहें डाल दीं और प्रणय-सचित नेत्रों से देखती हुई बोली-सच बताना, तुम अब भी मुझे वैसे ही चाहने हो, जैसे पहले चाहते थे? देखो, सच कहना, बोलो।

रमा ने जालपा के गले से चिमटकर कहा-उससे कहीं अधिक, लाख गुना जालपा ने हंसकर कहा–झूठ। बिल्कुल झूठ । सोलहों आना झूठ ।

रमानाथ-यह तुम्हारी जबरदस्ती है। आखिर ऐसा तुम्हें कैसे जान पड़ा?

जालपा-आंखों से देखती हूं और कैसे जान पड़ा। तुमने मेरे पास बैठने की कसम खा ली है। जब देखो तुम गमसम रहते हो। मझसे प्रेम होता, तो मुझ पर विश्वास भी होता। बिना विश्वास के प्रेम हो ही कैसे सकता है? जिससे तुम अपनी बुरी-से-बुरी बात न कह सको, उससे तुम प्रेम नहीं कर सकते। हां, उसके साथ विहार कर सकते हो, विलास कर सकते हो। उसी तरह जैसे कोई वेश्या के पास जाता है। वेश्या के पास लोग आनंद उठाने हो जाते हैं, कोई उससे मन की बात कहने नहीं जाता। तुम्हारी भी वही दशा है। बोलो है या नहीं? आंखें क्यों छिपाते हो? क्या मैं देखती नहीं, तुम बाहर से कुछ घबड़ाए हुए आते हो? बातें करते समय देखती हूं, तुम्हारा मन किसी और तरंफ रहता है। भोजन में भी देखती हूं, तुम्हें कोई आनंद नहीं आता। दाल गाढ़ी है या पतली, शाके कम है या ज्यादा, चावल में कनी है या पक गए हैं, इस तरफ तुम्हारी निगाह नहीं जाती। बेगार की तरह भोजन करते हो और जल्दी से भागते हो। मैं यह सब क्या नहीं देखती? मुझे देखना न चाहिए। मैं विलासिनी हूं, इसी रूप में तो तुम मुझे देखते हो। मेरा काम है-विहार करना, विलास करना, आनंद करना। मुझे तुम्हारी चिंताओं से मतलब !मगर ईश्वर ने वैसा हृद्य नहीं दिया। क्या करूं? मैं समझती , जब मुझे जीवन ही