पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/९५

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गबन : 95
 


चलकर कह दें।

रमानाथ-उनसे कहना होता, तो अब तक कभी कह चुका होता ! क्या आप कुछ बंदोबस्त नहीं कर सकते?

रमेश-कर क्यों नहीं सकता; पर करना नहीं चाहता। ऐसे आदमी के साथ मुझे कोई हमदर्दी नहीं हो सकती। तुम जो बात मुझसे कह सकते हो, क्या उनसे नहीं कह सकते? मेरी सलाह मानो। उनसे जाकर कह दो। अगर वह रुपये न दें तब मेरे पास आना।

रमा को अब और कुछ कहने का साहस न हुआ। लोग इतनी घनिष्ठता होने पर भी इतने कठोर हो सकते हैं। वह यहां से उठा; पर उसे कुछ सुझाई न देता था। चौवैया में आकाश से गिरते हुए जल-बिंदुओं की जो दशा होती है, वही इस समय रमा की हुई। दस कदम तेजी से आगे चलता, तो फिर कुछ सोचकर रुक जाता और दस-पांच कदम पीछे लौट जाता। कभी इस गली में घुस जाता, कभी उस गली में।

सहसा उसे एक बात सूझी, क्यों न जालपा को एक पत्र लिखकर अपनी सारी कठिनाइयां कह सुनाऊं। मुंह से तो वह कुछ न कह सकता था; पर कलम से लिखने में उसे कोई मुश्किल मालूम नहीं होती थी। पत्र लिखकर जालपा को दे दूंगा और बाहर के कमरे में आ बैठूंगा। इससे सरल और क्या हो सकता है? वह भागा हुआ घर आया, और तुरंत पत्र लिखा।

'प्रिय, क्या कहूं, किस विपत्ति में फंसा हुआ है। अगर एक घंटे के अंदर तीन सौ रुपये का प्रबंध न हो। गया, तो हाथों में हथकड़ियां पड़ जाएंगी। मैंने बहुत कोशिश की, किसी से उधार ले लें, किंतु कहीं न मिल सके। अगर तुम अपने दो-एक जेवर दे दो, तो मैं गिरों रखकर काम चला लें। ज्योंही रुपये हाथ आ जाएंगे, छुड़ा दूंगा। अगर मजबूरी न आ पड़ती तो, तुम्हें कष्ट न देता। ईश्वर के लिए रुष्ट न होना। मैं बहुत जल्द छुड़ा दूंगा...'

अभी यह पत्र समाप्त न हुआ था कि रमेश बाबू मुस्कराते हुए आकर बैठ गए और बोले-कहा उनसे तुमने?

रमा ने सिर झुकाकर कहा-अभी तो मौका नहीं मिला।

रमेश–तो क्या दो-चार दिन में मौका मिलेगा? मैं डरता हूं कि कहीं आज भी तुम यों ही खाली हाथ न चले जाओ, नहीं गजब तो ही हो जाय !

रमानाथ-जब उनसे मांगने का निश्चय कर लिया, तो अब क्या चिंता !

रमेश–आज मौका मिले, तो जरा रतन के पास चले जानाः उस दिन मैंने कितना जोर देकर कहा था, लेकिन मालूम होता है तुम भूल गए।

रमानाथ-भूल तो नहीं गया, लेकिन उनसे कहते शर्म आती है।

रमेश-अपने बाप से कहते भी शर्म आती है? अगर अपने लोगों में यह संकोच न होता, तो आज हमारी यह दशा क्यों होती?

रमेश बाबू चले गए, तो रमा ने पुत्र उठाकर जेब में डाला और उसे जालपा को देने का निश्चय करके घर में गया। जालपा आज किसी महिला के घर जाने को तैयार थी। थोड़ी देर हुई, बुलावा आ गया। उसने अपनी सबसे सुंदर साड़ी पहनी थी। हाथों में जड़ाऊ कंगन शोभा दे रहे थे, गले में चन्द्रहार। आईना सामने रखे हुए कानों में झूमक पहन रही थी। रमा को देखकर बोली-आज सबेरे कहां चले गए थे? हाथ-मुंह तक न धोया। दिन-भर तो बाहर रहते ही हो, शाम-सबेरे तो घर पर रहा करो। तुम नहीं रहते, तो घर सूना-सूना लगता है। मैं अभी सोच रही