पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/१०

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इस धारणा को प्रिर्मूल करने के लिये हिंदी गद्य साहित्य के विकास पर एक छोटा सा निबंध साथ ही दे दिया गया है। कहने का मतलब यह है कि वह खड़ी बोली के साहित्य का आरंभिक काल था। यद्यपि जठमल का गद्य खड़ी बोली में ही है, परंतु वे राजपूताने के रहनेवाले थे और लल्लूजी आगरा - निवासी थे तथा इनका आधार भी ब्रज भाषा था, इसलिए इसपर उस भाषा का प्रभाव बना हुआ था। पं० सदल मिश्र, इंशाअल्लाह खाँ और मुं० सदासुख आदि ब्रजवासी नहीं थे; इसी से उन लोगों की भाषा मे ब्रज भाषा का पुट प्रायः नहींं रह गया है।

साथ ही यह विचार उत्पन्न होता है कि दो तीन शताब्दी पहले हम लोग अनेक प्रान्तो में जिस भाषा में बातचीत करते थे, उसके रूप का किस प्रकार पता लग सकता है। इसका एक सरल उपाय है और उससे दृढ़ आशा है कि उस व्यावहारिक बोलचाल की भाषा का अवश्य बहुत कुछ पता लग सकेगा। यदि तीर्थ-स्थानो के पंडो की बहियाँ, समय और भाषा की दृष्टि से जॉची जाये तो इससे उक्त भाषा के साथ साथ ऐतिहासिक घटनाओं पर भी बहुत कुछ प्रकाश पड़ने की आशा की जा सकती है। हिंदी के साहित्यप्रेमियों को, जो तीर्थस्थानों के रहनेवाले हैं, इस ओर दृष्टि देकर हिंदी साहित्य के इतिहास के इस अंग की भी पूर्ति करने में सहायक होना चाहिए।

भागवत की कृष्ण-कथा का माधुर्य भी दो बार अनुवादित हीने से धुले हुए रंग के समान प्रेमसागर में फीका पड़ गया है। जितने दोहे चौपाइयाँ इस रचना में आई हैं, उनकी कविता बहुत ही साधारण श्रेणी की है और छंदोभंग का दोष भी है। इस