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श्रीकृष्ण पैरते फिरते। तिस समै सखा रो रो हाथ पसार पसार पुकारते थे। गाये मुँह बाये चारो ओर राँभती हूँकती फिरती थीं। ग्वाल न्यारे ही कहते थे, स्याम, बेग निकल आइये, नहीं तुम बिन घर जाय हम क्या उत्तर देगे। ये तो यहाँ दुखित हो यो कह रहे थे, इसमें किसी ने बृंदावन में जा सुनाया कि श्रीकृष्ण कालीदह में कूद पड़े। यह सुन रोहनी जसोदा औ नंद गोपी गोप समेत रोते पीटते उठ धाये, और सबके सब गिरते पडते कालीदह आये। तहाँ श्रीकृष्ण को न देख ब्याकुल हो नंदरानी दररानी गिरन चली पानी में, तब गोपियो ने बीच ही जा पकड़ा औ ग्वाल बाल नंदजी को थांभे ऐसे कह रहे थे।

छाँड़ महा बन या बन आये। तौहू दैत्यनि अधिक सताए॥
बहुत कुशल असुरन तें परी। अब क्यो दह ते निकसे हरी॥

कि इतने में पीछे से बलदेवजी भी वहाँ आए औ सब ब्रजबासियो को समझाकर बोले―अभी आवेगे कृष्ण अबिनासी, तुम काहे को होते हो उदासी। आज साथ आयो मै नाहीं। मो बिन हरि पैठे दह माहीं।

इतनी कथा कथ श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षित से कहने लगे कि महराज, इधर तो बलरामजी सबको यो आसा भरोसा देते थे औ उधर श्रीकृष्ण जो पैरकर उसके पास गये तो वह आ इनके सारे शरीर से लिपट गया। तब श्रीकृष्ण ऐसे मोटे हुए कि विसे छोड़ते ही बन आया। फिर जो जो फुंकारे मार मार इनपर फन चलाता था, तो तो ये अपने को बचाते थे। निदान ब्रजबासियो को अति दुखित जान श्रीकृष्ण एकाएकी उचक उसके सिर पर जा चढ़े।