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पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/१२६

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उपनंद भी कुटुंब समेत सामान ले सबके साथ हो लिये और बाजे गाजे से चले चले सब मिल गोवर्द्धन पहुँचे ।

वहाँ जाय पर्वत के चारो ओर भाड़ बुहार, जल छिड़क, घेवर, वाबर, जलेबी, लड्डू, खुरमे, इमारती, फेनी, पेड़े, बरफी, खाजे, गूझे, मठडी, सीरा, पूरी, कचौरी, सेव, पापड़, पकौड़ी आदि पकवान और भॉति भॉति के भोजन, बिंजन, संधाने, चुन चुन रख दिये, इतने कि जिनसे पर्वत छिप गया और अपर फूलों की माला पहराय, बरन बरन के पाटंबर तान दिये ।

तिस समै की शोभा बरनी नहीं जाती । गिरि ऐसा सुहावना लगता था, जैसे किसीने गहने कपड़े पहराय नख सिख से सिगारा होय, और नवजी ने पुरोहित बुलाये सब ग्वाल बालो को साथ ले, रोली अक्षत पुष्प चढ़ाय, धूप दीप नैवेद्य कर, पान सुप्यारी दुझिना धर, वेद की विधि से पूजा की तन श्रीकृष्ण ने कहा कि अब तुम शुद्ध मन से गिरिराज का ध्यान करो तो वे आय दरसन दे भोजन करे ।


श्रीकृष्ण से यो सुनतेही नंद जसोदा समेत सब गोपी गोप कर जोड़ नैन मूंद ध्यान लगाय खड़े हुए, तिस काल नंदलाल उधर तो अति मोदी भारी दूसरी देह धर बड़े बड़े हाथ पाँव कर, कमल-नैन, चंदुमुख हो, मुकुट धरे, बनमाल गरे, पीत बसन और रतन जटिल आभूषन पहरे, मुँह पसारे चुप चाप पर्वत के बीच से निकले, और इधर अपही अपने दूसरे रूप को देख सबसे पुकारके कहा- देखो गिरिराज ने प्रगट होय दरसन दिया, जिनकी पूंजा तुमने जी लगाय करी है। इतना बचन सुनाय श्रीकृष्णचंद् जी ने गिरिराज को दंडवत की, उनकी देखादेखी सब गोपी गोप