बाँसुरी बजाई। बंसी की धुनि सुनि सब ब्रज युवती बिरह की मारी कामातुर हो अति घबराईं। निदान कुटुंब की माया छोड़, कुलकान पटक, गृहकाज तज, हड़बड़ाय उलटा पुलदा सिंगार कर उठ धाईं। एक गोपी जो अपने पति के पास से जो उठ चली तो उसके पति ने बाट में जा रोका औ फेरकर घर ले आया, जाने न दिया, तब तो वह हरि को ध्यान कर देह छोड़ सबसे पहले जा मिली। विसके चित की प्रीति देख श्रीकृष्णचंद ने तुरंत मुक्ति गति दी।
इतनी कथा सुन राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी से पूछा कि कृपानाथ, गोपी ने श्रीकृष्णजी को ईश्वर जानके तो नहीं माना, केवल विषय की वासना कर भेजा, वह मुक्त कैसे हुई, सो मुझे समझाके कहो जो मेरे मन को संदेह जाय। श्रीशुकदेव मुनि बोले―धर्म्मावतार, जो जन श्रीकृष्णचंद की महिमा का अनजाने भी गुन गाते है सो भी निस्संदेह भक्ति मुक्ति पाते हैं, जैसे कोई बिन जाने अमृत पियेगा, वह भी अमर हो जियेगा औ जान के पियेगा विसे भी गुन होगी। यह सब जानते हैं कि पदारथ का गुन औ फल बिन हुए रहता नहीं। ऐसेही हरिभजन का प्रताप है, कोई किसी भाव से भजो मुक्त होयगा। कहा है- जप माला छाप तिलक, सरै न एकै काम। मन काचे नाचै वृथा, सांचे राचे राम॥ औ सुनो जिन जिनने जैसे जैसे भाव से श्रीकृष्ण को मान के सुक्ति पाई सो कहता हूँ कि नंद जसोदादि ने तो पुत्र कर बुझा, गोपियो ने जार कर समझा, कंस ने भय कर भेजा, ग्वाल बालो के मित्र कर जपा, पांडवों ने प्रीतम कर जाना, सिसुपाल ने शत्रु