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इन्हीं से पूछो, ये यहाँ खड़े देखते हैं, जिधर हरि गए होगे तिधर बता देगे। इतना बचन सुनते ही सब गोपी बिरह से व्याकुल हो क्या जड़ क्या चैतन्य लगी एक एक से पूछने―

हे बड़ पीपल पाकड़ बीर। लहा पुण्य कर उच्च शरीर॥
पर उपकारी तुमही भये। बृक्ष रूप पृथ्वी पर लये॥
घाम सीत बरषा दुख सहौ। काज पराये ठाढ़े रहौ॥
बकला फूल मूल फल डार। तिनस करत पराई सार॥
सबका मन घन हर नंदलाल। गये इधर को कहो दयाल॥
हे कदम्य अम्ब कचनारि। तुम कहुँ देखे जात मुरारि॥
हे अशोक चम्पा करवीर। जात लखे तुमने धलबीर॥
हे तुलसी अति हरि की प्यारी। तन ते कहूँन राखत न्यारी॥
फूली आज मिले हरि आय। हमहूँ को किन देत बताय॥
जाती जुही मालती माई। इत ह्वै निकसे कुँवर कन्हाई॥
मृगनि पुकारि कहै ब्रजभारी। इत तुम जात लखे बनवारी॥
इतना कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, इसी रीति से

सब गोपी पशु पक्षी द्रुम बेलि से पूछतीं पूछती श्रीकृष्णमय हो लगी पूतना बध आदि सब श्रीकृष्ण की करी हुई बाललीला करने औ ढूँढ़ने। निदान ढूँढ़ते ढूँढते कितनी एक दूर जाय देखैं तो श्रीकृष्णचंद के चरनचिन्ह, कँवल, जव, ध्वजा, अंकुश समेत रेत पर जगमगाय रहे है। देखतेही ब्रजयुबती, जिस रज को सुर, नर, मुनि, खोजते है तिस रजे को दण्डवत कर सिर चढ़ाय हरि के मिलने की आस धर वहाँ से बढ़ीं तो देखा, जो उन चरनचिन्हो के पास पास एक नारी के भी पाँव उपड़े हुए हैं। उन्हें देख अचरज कर